'प्रज्ञा-सूक्तं'
-प्रो०अवधेश कुमार 'शैलज',पचम्बा, बेगूसराय ।
ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।। १।।
अर्थात्
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं ।
प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।२।।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण होता है ।
जीव देहे तिष्ठति ।।३।।
जीव देह में रहता है ।
देहात काल ज्ञानं भवति ।।४।।
देह से समय का ज्ञान होता है ।
देहमेव देशोच्चयते ।।५।।
देह ही देश कहलाता है ।
देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावं अज्ञानस्य कारणं भवति ।।६।।
देश एवं काल के सम्यक् (ठीक-ठीक एवं पूरा-पूरा) ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण होता है ।
अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।७।।
अज्ञान् से भ्रम ( वस्तु/व्यक्ति/स्थान/घटना की उपस्थिति में भी सामान्य लोगों की दृष्टि में उसका सही ज्ञान नहीं होना) पैदा/ उत्पादित होता है ।
भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।८।।
भ्रम (Illusion) से विभ्रम (Hallucination) पैदा या उत्पन्न होता है ।
विभ्रमात् पतनं भवति ।।९।।
विभ्रम (विशेष भ्रम अर्थात् व्यक्ति,वस्तु या घटना के अभाव में उनका बोध या ज्ञान होना) से पतन होता है ।
पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।१०।।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाती है ।
प्रवृत्ति: भौतिकी सुखं ददाति ।।११।।
प्रवृत्ति भौतकी सुख प्रदान करता है ।
भौतिकी सुखं दु:खोत्पादयति ।।१२।।
भौतिकी सुख दु:ख उत्पन्न करती है ।
सुखदु:खाभात् निवृत्ति: प्रकटति ।। १३ ।।
सुख दुःख के अभाव से निवृत्ति ( संसार से मुक्त होने की प्रवृत्ति ) प्रकट होती है ।
निवृत्ति: मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।१४।।
निवृत्ति मार्ग ही संन्यास कहलाता है ।
संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।। १५।।
संन्यास ही परमात्म का पथ या मार्ग है ।
संन्यासी आत्मज्ञ: भवति ।। १६।।
संन्यासी आत्मज्ञानी होते हैं ।।
आत्मज्ञ: ब्रह्मविद् भवति ।।१७।।
आत्मज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी होते हैं ।.
जीव ब्रह्म योग समाधिरुच्चयते ।।१८।।
जीव और ब्रह्म का योग ही वास्तव में समाधि कहलाता है ।
नोट :- ज्ञातव्य है कि थियोसोफिकल सोसायटी की अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा डॉ० राधा वर्नीयर को जब मेरी इस रचना की जानकारी हुई तो उन्होंने इस रचना का शीर्षक 'सत्य की ओर' दिया साथ ही इस रचना पर अपनी टिप्पणी देते हुए थियोसोफिकल सोसायटी की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका 'अध्यात्म ज्योति' में मुझ अवधेश कुमार 'शैलज' के नाम से इस रचना को प्रकाशित करवाया, जिसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ ।
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