जो न आये साथ जगत में, उन्हीं के द्वारा आया हूँ।
मिला जगत् में सब कुछ, पर न खुश हो पाया हूँ।।
सीमित जरूरतें जीवन की, पर मन को समझाये कौन ?
"अतिबाद" है मूल मुसीबत , अनुभव ने यही बताया है।।
यहाँ सब कुछ पराया है, यहाँ कुछ भी नहीं अपना।
छोड़ते साथ एक दिन सब, जगत् व्यवहार है सपना।।
पराया कौन है जग में ? किसे अपना कहा जाये ?
सवालों से घिरा कब से, समझ में कुछ न आया है।।
मिले थे राह में एक दिन, हुई थी चार जब आँखें।
नजर से बात होती थी, नजर की थी गजब आँखें।।
सभी जग में हमारे हैं, जगत् व्यवहार होते हैं।
नजरिया जो जगत हो, अपने दिल से होते हैं।।
सँजोए थे बहुत सपने, हृदय के हार थे अपने।
मगर कुछ काम न आये, वक्त के रंग थे अपने।।
हुआ लाचार आ जग में, सभी लाचार हैं जग में।
समझ में आ नहीं पाया, धरम औ करम क्या जग में ?
खुलासा हो गया उस दिन, स्वार्थ का वेग जब आया।
समझ में आ गया उस दिन, जब कुछ साथ न दे पाया।।
आहार, निद्रा, भय औ मैथुन प्राणी धर्म विदित है।
"शैलज" मानव को विवेक कर्माभिशाप का वर है।।
डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें