दिवा-रात्रि अभिनन्दन
सर्वोत्तम शुभ घड़ी मनोरम,
लगन सुन्दरतम् ,अति अनुपम।
क्षितिज नभ शोभित स्वर्णिम,
मणिमय पथ,दिव्य सरलतम।।
सन्मुख रवि निर्मल अन्तस्, 
दनुज देव नर हैं नतमस्तक।
गोपद रज पीताभ गुलाबी, 
फैला गुलाल है नभ तक।।
पुष्प फल नैवेद्य यथोचित, 
अमृतमय अर्ध्य सुगन्धित।
हल्दी धन धान्य दूर्वादल, 
वस्त्र उपवीत सुसज्जित।।
श्रृंगार सोलह मन भावन, 
कला चौंसठ मधु पावन।
छटा उत्कृष्ट लुभावन,
मदन रति करें चुमावन।।
चतुर्दिक मंगल गायन, 
हो मण्डप आच्छादन।
सागर कर पद प्रक्षालन, 
शंखजल अमृत वर्षण।।
बसन्त प्रकृति कुसुमाकर, 
प्रहरी द्वार पर अविचल।
अभिनन्दन आरती पूजन, 
पवन व दीपक से प्रतिपल।।
झूमते झिंगुर धुनि सुन, 
तिमिर तारक जुगनू संग।
आतिथ्य आतुर रजनीचर, 
व्यस्त हैं मधुकर के संग।।
वेद स्वर यज्ञ मण्डप में पूजन, 
व्यस्त हैं ब्राह्मण बटु जन।
वैश्य धन, क्षत्रिय बल से, 
सेवक वन्दन अभिनन्दन।।
इवादत करते मुस्लिम, 
निर्गुण रहमान प्रभु का।
ईसाई करते हैं वन्दन, 
सगुण निर्गुण केशव का।।
नर-नारि कला कौशल से, 
विज्ञान शोध, साधन से।
साधक गृहस्थ फल पाते, 
भक्ति, योग, कर्म के बल से।
दिवा रात्रि का है यह वन्दन, 
सकल कलि कलुष नशावन।
करत शैलज हरि ऊँ पद वन्दन,
सर्व विधि त्रिविध ताप नशावन।।
डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।
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