राष्ट्र कवि ! फिर जागो ।
राष्ट्र कवि! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
अश्रुपूरित आँखों से कैसे
राष्ट्र कवि! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
अश्रुपूरित आँखों से कैसे
आज तुझे हर्षाऊँ ?
भारतेंदु ने सच ही कहा
जो आज समझ में आई ।
भारतेंदु ने सच ही कहा
जो आज समझ में आई ।
"आवहुँ सब मिलि रोवहुँ भारत भाई ।
हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखि न जाई।। "
हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखि न जाई।। "
युग द्रष्टा भारतेंदु नहीं थे
केवल कविता प्रेमी ।
हिन्दी-हिन्दुस्थान भारत के
अन्तरतम से थे सेवी ।।
राजनीति व्याध साहित्यिक
छल बल से भरे हुए हैं ।
स्वार्थी,अपराधी, आराजक
तत्वों से हम घिरे हुए हैं ।।
अवसरवादी, शरणागत हो,
माथे पर चढ़े हुए हैं ।
मानवता त्रसित हो रही,
आतंकित सारी धरती है ।।
धर्म-कर्म हो रहे तिरोहित,
दुष्ट भाव फैला है ।
देश द्रोहियों का भारत में
महाजाल फैला है ।।
विश्व गुरु भारत की कुटिया,
लूट रहे जग वाले ।
पोथी-पतरा सभी ले गए,
जो बचा जला वे डाले ।।
तप, कर्म, संकल्प, साधना,
ईश बल बचा हुआ है ।
गीता का उपदेश कृष्ण का,
अब भी गूँज रहा है ।।
अर्धनारीश्वर रुप हमारा,
इसे तोड़ते जो हैं ।
प्रकृति-पुरुष की दिव्य शक्ति
को नहीं जानते वे है ?
एक सनातन धर्म हमारा,
सब जीवों की सेवा है ।
दया धर्म का मूल हमारा,
क्षणभर मेरा तेरा है ।।
हम अगुण सगुण को भजते,
सबको अपना ही समझते हैं ।
वे दया धर्म से पतित हमें,
कायर काफिर तक कहते हैं ।।
हम शान्ति, न्याय, आदर्श, अहिंसा,
सत् पथ पर चलते हैं ।
वे ज्योति बुझा कर हमें कुमार्ग
पथ पर चलने को कहते हैं ।।
तोड़ रहे सांस्कृतिक एकता,
आपस में हमें लड़ाकर ।
पूर्वाग्रह ग्रसित प्रतिशोध की
ज्वाला को भड़का कर ।।
जाति-धर्म की राजनीति
हरदम करते रहते हैं ।
ऊँच-नीच का पाठ पढ़ा कर
ये हमको ठगते हैं ।।
भटक रहे जो खुद भ्रमित हो,
औरों को राह दिखाते हैं ।
नद निर्झर की धारा को वे
शिखरों की ओर बहाते हैं ।।
आर्ष ज्ञान से भटका कर
पाश्चात्य जगत ले जाते हैं ।
आधुनिक विज्ञान ज्ञान से,
वे हमको भरमाते हैं ।।
" सोने की चिड़ियाँ " का
अद्भुत रुप नहीं देखा है ।
वरदा भारत भारती माँ से
वेकार उलझ बैठा है ।।
रण चण्डी को बुला रहा है,
रोज निमन्त्रण देकर ।
भगवा धारी प्रकट हुई हैं,
आज तिरंगा लेकर ।।
राष्ट्रकवि! इनके वन्दन का,
समय पुनः आया है ।
जागें बन मुचुकुन्द कविवर,
राक्षसी प्रवृत्ति छाया हैं ।।
भस्म करें निज ज्ञान नेत्र से,
अन्तर के असुर दलों को ।
अमृत का उपहार सुरों को,
दें फिर मोहिनी बन के ।।
काल कूट तू ही पी सकते,
औरों में शौर्य कहाँ है ?
रहते शांत, असीम धैर्य की
शक्ति यहाँ कहाँ है ?
कविवर ! उठो,जगो हे दिनकर !
तम को दूर भगाओ ।
श्रम जीवी, बुद्धि जीवी को,
सत् पथ राह दिखाओ ।।
बाट जोहती खड़ी भारती
कब से हिन्द जन मन में ।
देर हो रही रणचंडी के,
पावन अभिनन्दन में ।।
" हिन्द उन्नायक " खोज रही हैं,
कब से भारत माता ।
वरण करो रचनात्मकता का,
अवसर न हरदम आता ।।
अपने और पराये अर्जुन,
इन्हें अभी पहचानो ।
अन्तस्थल के विराट को,
दिव्य-दृष्टि से जानो ।।
माता रही पुकार राष्ट्रकवि !
जागो और जगाओ ।
भूषण, गुप्त, सुभद्रा, प्रसाद को
फिर से आज जगाओ ।।
विखरे अपने अंगों को
आज पुनः अपनाओ ।
सत्तर वर्षों की निद्रा से,
वीरों को पुनः जगाओ ।।
भारत की सभ्यता-संस्कृतिक,
संकट में पड़ी हुई है ।
रक्त बीज,जय चन्द, शकुनि से
धरती भरी हुई है ।।
अर्जुन को ही नहीं युधिष्ठिर को
भी रण में लड़ना होगा ।
पाने को अधिकार विवेक से
कर्त्तव्य पूर्ण करना होगा ।।
रण में जो आड़े आयेंगें,
उनको हम सबक सिखायेंगे ।
हम विदुर और चाणक्य सूत्र से
सारे जग को हम जीतेगे ।।
"शैलज" मिथिला की सीमा पर
" दिनकर " की सिमरिया नगरी है ।
हिन्दी साहित्य भाषा शैली की
अवशेष अशेष यह गगरी है ।।
इस पुण्य भूमि को नमस्कार
जिसने तुम-सा सुत जन्म दिया ।
भारत माता की सेवा में निष्ठा से
जीवन भर अपना कर्म किया ।।
देव- दनुज हेतु जहाँ अमृत प्रकटे,
प्राकृत संस्कृत वेद वचन प्रभु से निकले ।
रुप मोहिनी,हरि,राम,विष्णु आये,
सुरसरि हित अवतरित हुए प्रभु रुक पाये ।।
कविवर जागो! हे राष्ट्र कवि !
दिनकर ! तू आँखें खोलो ।
गंगा जल से आँखें धोलो ।
पावन 'रेणु' का 'मैला आँचल' धोलो ।।
प्रगतिशील कहलाने वाले
सोच नहीं कुछ पाते ।
माँ की ममता समझ न पाते,
मुझको ही हैं समझाते।।
हे राष्ट्रकवि! दिनकर ! कवि वर !
जन गण मन बोल रहा है ।
जन्म दिवस पर आज तुम्हें ये
अन्तस् की पीड़ा बता रहे हैं ।।
राष्ट्र कवि! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
केवल कविता प्रेमी ।
हिन्दी-हिन्दुस्थान भारत के
अन्तरतम से थे सेवी ।।
राजनीति व्याध साहित्यिक
छल बल से भरे हुए हैं ।
स्वार्थी,अपराधी, आराजक
तत्वों से हम घिरे हुए हैं ।।
अवसरवादी, शरणागत हो,
माथे पर चढ़े हुए हैं ।
मानवता त्रसित हो रही,
आतंकित सारी धरती है ।।
धर्म-कर्म हो रहे तिरोहित,
दुष्ट भाव फैला है ।
देश द्रोहियों का भारत में
महाजाल फैला है ।।
विश्व गुरु भारत की कुटिया,
लूट रहे जग वाले ।
पोथी-पतरा सभी ले गए,
जो बचा जला वे डाले ।।
तप, कर्म, संकल्प, साधना,
ईश बल बचा हुआ है ।
गीता का उपदेश कृष्ण का,
अब भी गूँज रहा है ।।
अर्धनारीश्वर रुप हमारा,
इसे तोड़ते जो हैं ।
प्रकृति-पुरुष की दिव्य शक्ति
को नहीं जानते वे है ?
एक सनातन धर्म हमारा,
सब जीवों की सेवा है ।
दया धर्म का मूल हमारा,
क्षणभर मेरा तेरा है ।।
हम अगुण सगुण को भजते,
सबको अपना ही समझते हैं ।
वे दया धर्म से पतित हमें,
कायर काफिर तक कहते हैं ।।
हम शान्ति, न्याय, आदर्श, अहिंसा,
सत् पथ पर चलते हैं ।
वे ज्योति बुझा कर हमें कुमार्ग
पथ पर चलने को कहते हैं ।।
तोड़ रहे सांस्कृतिक एकता,
आपस में हमें लड़ाकर ।
पूर्वाग्रह ग्रसित प्रतिशोध की
ज्वाला को भड़का कर ।।
जाति-धर्म की राजनीति
हरदम करते रहते हैं ।
ऊँच-नीच का पाठ पढ़ा कर
ये हमको ठगते हैं ।।
भटक रहे जो खुद भ्रमित हो,
औरों को राह दिखाते हैं ।
नद निर्झर की धारा को वे
शिखरों की ओर बहाते हैं ।।
आर्ष ज्ञान से भटका कर
पाश्चात्य जगत ले जाते हैं ।
आधुनिक विज्ञान ज्ञान से,
वे हमको भरमाते हैं ।।
" सोने की चिड़ियाँ " का
अद्भुत रुप नहीं देखा है ।
वरदा भारत भारती माँ से
वेकार उलझ बैठा है ।।
रण चण्डी को बुला रहा है,
रोज निमन्त्रण देकर ।
भगवा धारी प्रकट हुई हैं,
आज तिरंगा लेकर ।।
राष्ट्रकवि! इनके वन्दन का,
समय पुनः आया है ।
जागें बन मुचुकुन्द कविवर,
राक्षसी प्रवृत्ति छाया हैं ।।
भस्म करें निज ज्ञान नेत्र से,
अन्तर के असुर दलों को ।
अमृत का उपहार सुरों को,
दें फिर मोहिनी बन के ।।
काल कूट तू ही पी सकते,
औरों में शौर्य कहाँ है ?
रहते शांत, असीम धैर्य की
शक्ति यहाँ कहाँ है ?
कविवर ! उठो,जगो हे दिनकर !
तम को दूर भगाओ ।
श्रम जीवी, बुद्धि जीवी को,
सत् पथ राह दिखाओ ।।
बाट जोहती खड़ी भारती
कब से हिन्द जन मन में ।
देर हो रही रणचंडी के,
पावन अभिनन्दन में ।।
" हिन्द उन्नायक " खोज रही हैं,
कब से भारत माता ।
वरण करो रचनात्मकता का,
अवसर न हरदम आता ।।
अपने और पराये अर्जुन,
इन्हें अभी पहचानो ।
अन्तस्थल के विराट को,
दिव्य-दृष्टि से जानो ।।
माता रही पुकार राष्ट्रकवि !
जागो और जगाओ ।
भूषण, गुप्त, सुभद्रा, प्रसाद को
फिर से आज जगाओ ।।
विखरे अपने अंगों को
आज पुनः अपनाओ ।
सत्तर वर्षों की निद्रा से,
वीरों को पुनः जगाओ ।।
भारत की सभ्यता-संस्कृतिक,
संकट में पड़ी हुई है ।
रक्त बीज,जय चन्द, शकुनि से
धरती भरी हुई है ।।
अर्जुन को ही नहीं युधिष्ठिर को
भी रण में लड़ना होगा ।
पाने को अधिकार विवेक से
कर्त्तव्य पूर्ण करना होगा ।।
रण में जो आड़े आयेंगें,
उनको हम सबक सिखायेंगे ।
हम विदुर और चाणक्य सूत्र से
सारे जग को हम जीतेगे ।।
"शैलज" मिथिला की सीमा पर
" दिनकर " की सिमरिया नगरी है ।
हिन्दी साहित्य भाषा शैली की
अवशेष अशेष यह गगरी है ।।
इस पुण्य भूमि को नमस्कार
जिसने तुम-सा सुत जन्म दिया ।
भारत माता की सेवा में निष्ठा से
जीवन भर अपना कर्म किया ।।
देव- दनुज हेतु जहाँ अमृत प्रकटे,
प्राकृत संस्कृत वेद वचन प्रभु से निकले ।
रुप मोहिनी,हरि,राम,विष्णु आये,
सुरसरि हित अवतरित हुए प्रभु रुक पाये ।।
कविवर जागो! हे राष्ट्र कवि !
दिनकर ! तू आँखें खोलो ।
गंगा जल से आँखें धोलो ।
पावन 'रेणु' का 'मैला आँचल' धोलो ।।
प्रगतिशील कहलाने वाले
सोच नहीं कुछ पाते ।
माँ की ममता समझ न पाते,
मुझको ही हैं समझाते।।
हे राष्ट्रकवि! दिनकर ! कवि वर !
जन गण मन बोल रहा है ।
जन्म दिवस पर आज तुम्हें ये
अन्तस् की पीड़ा बता रहे हैं ।।
राष्ट्र कवि! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
अश्रुपूरित नेत्रों से कैसे,
आज तुझे हर्षाऊँ ?
राष्ट्र धर्म हो नहीं कलंकित
ऐसा राष्ट्र बनाऊँ ।
एक राष्ट्र ही नहीं विश्व में
ऐसा राष्ट्र बनाऊँ ।
एक राष्ट्र ही नहीं विश्व में
यह परचम लहराऊँ ।।
भारत माता की सेवा में
जीवन शेष बिताऊँ ।
जनता की सच्ची सेवा कर
जन सेवक कहलाऊँ ।।
जीवन शेष बिताऊँ ।
जनता की सच्ची सेवा कर
जन सेवक कहलाऊँ ।।
मांग रहा बलिदान राष्ट्र जब
कभी नहीं घबराऊँ ।
ज्ञान- विज्ञान, कला ,अध्यात्म
का जग को पाठ पढ़ाऊँ ।।
कभी नहीं घबराऊँ ।
ज्ञान- विज्ञान, कला ,अध्यात्म
का जग को पाठ पढ़ाऊँ ।।
अहंकार में भटके जन को
कैसे राह दिखाऊँ ?
कैसे राह दिखाऊँ ?
राष्ट्र कवि ! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
राष्ट्र कवि ! हृदय की पीड़ा,
कैसे तुम्हें बताऊँ ?
राष्ट्र कवि ! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढाऊँ ?
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढाऊँ ?
प्रो० अवधेश कुमार " शैलज "‛
पचम्बा, बेगूसराय ।
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