शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

वक्त पर याद आते हैं :-

वक्त पर याद आते हैं :-

निकालते वक्त हैं हम सब, जरूरी जब समझते हैं।
जरूरी कब ? किसे ? कितना ? यहाँ कितने समझते हैं ?

पहुँचना है सभी को पुनः, चिरपरिचित ठिकाने पर।
निभा निज भूमिका जग में, वक्त पर लौट जाना है।

टिकट आवागमन का, साथ में लेकर सभी आये।
यहाँ पर सौंप तन,मन,धन; प्रभु में लीन होना है।

वक्त को जो समझ में है, वक्त पर ही बताता है।
वक्त न आम होता है,  वक्त न खास होता है।

वक्त पर काम जो आते, भले ही भूल जायें हम।
वक्त जब गुजर जाता है, वक्त पर याद आते हैं।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


आओ ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।

आओ ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।
भारत माता के हर सपूत के बलिदानों को हम याद करें।।
जाड़ा, गर्मी, बर्षा, बसन्त सब का स्वागत सत्कार करें।
हर मौसम में बसन्त की नित अनुभूति हम स्वीकार करें।।
आओ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।
भारत माँ के हर सपूत के बलिदानों को हम याद करें।।

सत्तर वर्षों की बेड़ी से मुक्त हुई माँ, हर्षित संसार सुनो।
टूट गये सब चक्र व्यूह, भारत माँ कर रही पुकार सुनो।।
हवा हवाई है अब केवल, शुभ अवसर है, अंगीकार करो।
छोड़ो भूल, मूल को पकड़ो, सच सच है, स्वीकार करो।।
आओ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।,
भारत माँ के हर सपूत के बलिदानों को हम याद करें।।

इस मिट्टी की मूरत हैं हम, हरि ऊँ कृपा को याद करो।
मौसम है अनुकूल,अपनी विराट सीमा स्वीकार करो।।
पाक इरादा साफ नहीं,खुदगर्जी,सत्ता व्यापार कहो।
सौतेलापन, क्रूरता, मातृवत रहा कहाँ व्यवहार कहो ?
आओ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।
भारत माँ के हर सपूत के बलिदानों को हम याद करें।।

ओ मेरे सिर मौर! तुम्हारी रक्षा मेरा प्रण है।
पुत्र ! तुम्हारा हित सम्वर्धन लक्ष्य अहम् मेरा है।
धाराओं को काट अनेकों आज पास आयी हूँ।
शपथ तिरंगा,आतंकी बन्धन मुक्ति-पत्र लायी हूँ।।
आओ! देश के कोने-कोने का दिल से हम ख्याल करें।
भारत माँ के हर सपूत के बलिदानों को हम याद करें।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


राज रिश्तों का...

राज रिश्तों का...

राज रिश्तों का अन्तर को पता है,
और कुछ कहना नहीं, केवल बचा है।
श्री चरण का ध्यान धर कर अग्रसर जो,
हर चुनौती झेल वह आगे खड़ा है।।

राज रिश्तों का सरित सर कूप जल का,
एक अन्त: श्रोत अविरल भूमि तल का।
जलद निर्झर गिरि शिखर से श्रवित अविरल,
दोष हर प्रियतम! अहर्निश भूमि तल का।।

राज रिश्तों का पयोधि मृदु मधुर जल का,
अतल अथाह सैलाब सुन्दर कलश जल का।
मस्त पंकज क्रोड में अलि गोधूलि से,
सच्चिदानंद सुख मग्न मादकता मदन रस पा।।

राज रिश्तों का श्री अवधेश प्रभुवर,
पूछते है कुंज वन से, सरित सरि से।
अग्नि अर्पिता वैदही, रावण ले गया क्या ?
पार कर रेखाग्नि अनुज खचित शर से ?

राज रिश्तों का जगत् व्यवहार मन का,
माया प्रकृति पुरूष का, संसार जन का।
आवाज आत्मा की, हृदय के धड़कनों का,
प्रेममय पीयूष वर्धन शुभ आशीष प्रभु का।।

राज रिश्तों का न "शैलज" को पता है,
भाव को लिपिबद्ध करने को चला है।
सौंदर्य श्री अनुपम नयन पथ से उतरकर,
कवि हृदय में क्या कहूँ ? आ बस गया है।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।

    

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केशव ने समझाया :-

केशव ने समझाया

अभिनन्दन करने को प्रकृति उषा संग में आई।
धूप, दीप,नैवेद्य,आरती से हुई रवि की अगुआई।।
कुसुमाकर अनंग रति संग मलय ने रास रचाई।
जाड़ा, गर्मी, वर्षा, बसन्त ने मंगल गान सुनाई।।
रजनीचर छिप गए, सभी ने नकली रूप बनाई।
हरित धरा को शवनम ने मोती माणिक पहनाई।।
नील गगन में निशा अंक में जुगनू तारक अठखेली।
सचिव चाँद रानी सूरज मन स्व अनुगामी अलवेली।।
दिवा रात्रि के मिलन महोत्सव असुरों को नहीं भाया।
भगवा रंग में रंगा अरुण रथ सुर पर आरोप लगाया।।
राहु केतु द्वारा, अमृत हित जिसको था उसकाया।।
सूर्य चन्द्र को ग्रहण लगाकर रंग में भंग कराया।।
घनश्याम घटा का रूप बना, भरमाया और डराया।
मन मयूर तब भी शैलज का अपना रंग दिखाया।।
शत्रु दलन करने को रक्षक सत्ता ने मूड बनाया।
प्रजावर्ग हित भक्षक को उसका औकात बताया।।
फैला सद्यः प्रकाश जगत में,अज्ञान तिमिर सब भागा।
तेज पुञ्ज दिनकर का लख कर राष्ट्रवाद् शुभ जागा।।
टुकड़े-टुकड़े बादल छँट गये सभी उपद्रव कारी।
रवि का अनुशासन आदेश हुआ जगत में जारी।।
प्रकृति नटी ने भा-रत जग में अदभुत रास रचाया।
हरित धरा, चक्र सुदर्शन, भगवा नभ में फहराया।।
मध्यम मार्ग, वाहेगुरु,आयत अव्यक्त का, प्रेयर गौड को भाया।
सचराचर व्याप्त सगुणागुण प्रभु को संस्कृत वेद ध्वनि भाया।।
गीता, वेद,पुराण, कुरान, वाईविल, कण-कण में निज को दर्शाया।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:" केशव ने समझाया।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय, बिहार।


गुरु वंदना :-

शैलज तन रक्षा करे, मन की सुधि नित लेत।
ज्योतिर्मय कर ज्ञान पथ,पाप भरम हरि लेत।।
अन्त:करण सुचि देव नर ,जीव चराचर कोई।
दृश्यादृश्य पुनीत प्रभु, गुरु प्रणम्य जग सोई।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
पचम्बा, बेगूसराय।

सनातन हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा) के दिन गुरु व्यासजी की पूजा होती है, परन्तु भारत के भूत पूर्व राष्ट्रपति एवं आदर्श शिक्षक डॉ० सर्वे पल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस ५ सितम्बर के दिन प्रत्येक वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाता है और हम सभी भारत के भूत पूर्व राष्ट्रपति एवं आदर्श शिक्षक डॉ० सर्वे पल्ली राधाकृष्णन एवं अपने-अपने अन्य गुरु देवों को भी याद करते हैं, उनका सम्मान करते हैं तथा उनके द्वारा बताये गये मार्ग का अनुशरण करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं, क्योंकि गुरु का अर्थ होता है अन्धकार से प्रकाश में लाने वाले।
ऊँ असतो मां सदगमय।। तमसो मां ज्योतिर्गमय।। मृत्योर्मा अमृतं गमय।। शुभमस्तु।।
शिक्षक दिवस हार्दिक शुभकामना एवं बधाई के साथ।   


सुभाषितं :-

  सुभाषितं

धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष चार फल
प्रभु ने तुझे दिये।
प्रकृति-पुरुष पीयूष कृपा का
सम्यक् उपभोग करो।।
छोड़ो अहं, हीन भाव को,
सबको निज-सा समझो।
कल, बल, छल से है भरा जगत्,
फिर भी निज कर्म करो।।
आर्ष ज्ञान, विज्ञान, खोज का
सदुपयोग, सम्मान करो।
कर सकते हो यदि कुछ जग में,
निज तन-मन को स्वस्थ करो।।
काम, क्रोध औ लोभ पंक में
पंकज-सा नित्य खिलो।
दुनिया के प्यासे प्याले में -
"शैलज", अपना प्रेम भरो।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।  


भूल तुम कब तक करोगे ?

शुक्रवार, 22 मई 2022
भूल तुम कब तक करोगे ?

प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।
प्रकृति, गुरु, आध्यात्म, शिक्षा, विज्ञान, वेदों से जुड़ोगे।
पूर्वजों के प्राकृतिक चिह्नों को संग में लेकर जब बढ़ोगे।।
आधुनिकता अर्वाचीनता को साथ लेकर जब चलोगे।
रूप अन्तर्ध्यान होना, तुम मेरा खोना, सिमटना कहोगे ।
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे।
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

अग्नि का मैं ताप, जल का शीत हूँ मैं।
इस जगत् की सृष्टि का असल में बीज हूँ मैं।।
है अटल यह सत्य, मेरे अंग हो तुम।
वेदना समझो, समझ के संग हो तुम।।
वत्स अन्त:ज्योति तेरी कब जलेगी ?
भीड़ से अलग पहचान तेरी कब बनेगी ?
साधना की ज्योति तुममें कब जगेगी ?
है सनातन सत्य मुझ से दूर हो कभी क्या रह सकोगे?
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे ?
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

लिया जब अवतार मैंने,आर्त्तों की पीड़ हरने।
झेल झंझावात सारे,हर हृदय में प्रेम भरने।
प्राणियों के त्रिविध तापों को सहज ही दूर करने।
कार्य कारण की समझ स्थापना विधि मान्य करने।
पर, नहीं विश्वास, अमर फल स्वाद तुम कैसे चखोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे,विश्वास मुझ पर तब करोगे ?
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

प्रणव ऊँ स्वरूप मेरा, त्रिगुण त्रिविमीय आयाम गोचर।
पंच तत्वों में परस्पर व्याप्त चराचर अनन्त स्वरूप मेरा।।
वेद वाणी, सर्वज्ञ, सम्प्रभु, आद्यान्त, सगुणागुण नियन्ता।
मैं प्रकृति पुरुषात्मक जगत् स्रष्टा, पालन, संहार कर्त्ता।।
पर, बिना श्रद्धा समर्पण पहचान तुम कैसे सकोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे ?
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

मूल जड़ चैतन्यता, अहं, उदगार प्रकृति समरूपता का।
है जगत् नि:सार शैलज, मोह भ्रम क्या तज सकोगे ?
सत्य पर विश्वास करने, अग्नि पथ पर चल सकोगे ?
योग या फिर भोग में सम भाव में मुझसे मिलोगे।
प्रवृत्ति व्यूह में यों घूमते या निवृत्ति कर्म पथ पर चलोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे ?
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

मन्दिरों, मस्जिदों, गह्वरों में, या कि फिर गिरिजाघरों में।
चींख कर दम तोड़ दोगे, या कि साधना रत रहोगे ?
कष्ट देकर क्या किसी को, लक्ष्य तक तुम चल सकोगे ?
प्रेम को जाने बिना तू, एक पग क्या बढ़ सकोगे ?
रूप अन्तर्ध्यान होना, तुम मेरा खोना, सिमटना कहोगे ।
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे ?
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

इस तरह निज में सिमटने को तुम मेरा खोना कहोगे।
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे।
प्रत्यक्ष को पहचानने की भूल तुम कब तक करोगे ?
काल-क्रम में एक दिन तुम सत्य का दर्शन करोगे।।

प्रो० ए० के० शैलज,पचम्बा,बेगूसराय
(डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।)

Prof. Awadhesh Kumar पर 1:20 pm

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जब मुझे तुम खो चुकोगे,भीड़ में तुम खो चुकोगे।।है अटल विश्वास मुझको,विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

जब मुझे तुम खो चुकोगे,भीड़ में तुम खो चुकोगे।।
है अटल विश्वास मुझको,विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

लिया जब अवतार मैंने,आर्त्तों की पीड़ हरने।
झेल झंझावात सारे,हर हृदय में प्रेम भरने।
प्राणियों के त्रिविध तापों को सहज ही दूर करने।
कार्य कारण की समझ स्थापना विधि मान्य करने।
पर, नहीं विश्वास, अमर फल स्वाद तुम कैसे चखोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे,विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

प्रणव ऊँ स्वरूप मेरा, त्रिगुण त्रिविमीय आयाम गोचर।
पंच तत्वों में परस्पर व्याप्त चराचर अनन्त स्वरूप मेरा।।
वेद वाणी, सर्वज्ञ, सम्प्रभु, आद्यान्त, सगुणागुण नियन्ता।
मैं प्रकृति पुरुषात्मक जगत् स्रष्टा, पालन, संहार कर्त्ता।।
पर, बिना श्रद्धा समर्पण पहचान तुम कैसे सकोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

मूल जड़ चैतन्यता, अहं, उदगार प्रकृति समरूपता का।
है जगत् नि:सार शैलज, मोह भ्रम क्या तज सकोगे ?
सत्य पर विश्वास करने, अग्नि पथ पर चल सकोगे ?
योग या फिर भोग में सम भाव में मुझसे मिलोगे।
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

मन्दिरों, मस्जिदों, गह्वरों में, या कि फिर गिरिजाघरों में।
चींख कर दम तोड़ दोगे, या कि साधना रत रहोगे ?
कष्ट देकर क्या किसी को, लक्ष्य तक तुम चल सकोगे ?
प्रेम को जाने बिना तू, एक पग क्या बढ़ सकोगे ?
जब मुझे तुम खो चुकोगे, विश्वास मुझ पर तब करोगे।।

प्रो० ए० के० शैलज,पचम्बा,बेगूसराय
(डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।)


ब्रह्मरस पान :-

ब्रह्मरस पान

हृदय के भाव हैं निर्मल,
सरल, सुन्दर, सुलभ, कोमल।
हृदय में प्रेम बसता है,
मातृत्व, वात्सल्य भी अविरल।।
सहज सौहार्द सुचिन्तन,
करुणामय स्नेह का बन्धन।
दिव्यता, भोग, सात्विकता;
पर रज तम का नहीं दर्शन।।
मष्तिष्क में बास है मन का,
विचार के जाल बुनने को।
हृदय के दिव्य निर्णय को,
सही अंजाम देने को।।
हृदय की बांसुरी से,
कृष्ण के जब धुन निकलते हैं।
प्रकृति राधा प्रकट होती,
ब्रजांगनाओं के मन मचलते हैं।।
विषय की बासना मिटती,
देह का बोध जाता है।
ब्रह्मरस पान करके जीव,
प्रभु का ध्यान करता है।।
प्रबल आत्मिक समर्पण
योग का जब ध्यान धरता है।
शिव शक्ति का दर्शन,
श्रेष्ठ रति काम होता है।।
जो पूर्व में दक्षिण,
वही फिर वाम होता है।
स्वर तत्व का दर्शन,
ईडा, पिंगला, सुसुम्ना है।
देश औ काल बोधक,
साधना शक्ति द्योतक है।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।

 


दिवा रात्रि अभिनन्दन :-

दिवा-रात्रि अभिनन्दन

सर्वोत्तम शुभ घड़ी मनोरम,
लगन सुन्दरतम् ,अति अनुपम।
क्षितिज नभ शोभित स्वर्णिम,
मणिमय पथ,दिव्य सरलतम।।
सन्मुख रवि निर्मल अन्तस्,
दनुज देव नर हैं नतमस्तक।
गोपद रज पीताभ गुलाबी,
फैला गुलाल है नभ तक।।
पुष्प फल नैवेद्य यथोचित,
अमृतमय अर्ध्य सुगन्धित।
हल्दी धन धान्य दूर्वादल,
वस्त्र उपवीत सुसज्जित।।
श्रृंगार सोलह मन भावन,
कला चौंसठ मधु पावन।
छटा उत्कृष्ट लुभावन,
मदन रति करें चुमावन।।
चतुर्दिक मंगल गायन,
हो मण्डप आच्छादन।
सागर कर पद प्रक्षालन,
शंखजल अमृत वर्षण।।
बसन्त प्रकृति कुसुमाकर,
प्रहरी द्वार पर अविचल।
अभिनन्दन आरती पूजन,
पवन व दीपक से प्रतिपल।।
झूमते झिंगुर धुनि सुन,
तिमिर तारक जुगनू संग।
आतिथ्य आतुर रजनीचर,
व्यस्त हैं मधुकर के संग।।
वेद स्वर यज्ञ मण्डप में पूजन,
व्यस्त हैं ब्राह्मण बटु जन।
वैश्य धन, क्षत्रिय बल से,
सेवक वन्दन अभिनन्दन।।
इवादत करते मुस्लिम,
निर्गुण रहमान प्रभु का।
ईसाई करते हैं वन्दन,
सगुण निर्गुण केशव का।।
नर-नारि कला कौशल से,
विज्ञान शोध, साधन से।
साधक गृहस्थ फल पाते,
भक्ति, योग, कर्म के बल से।
दिवा रात्रि का है यह वन्दन,
सकल कलि कलुष नशावन।
करत शैलज हरि ऊँ पद वन्दन,
सर्व विधि त्रिविध ताप नशावन।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


वक्त के रंग :-

वक्त के रंग

जो न आये साथ जगत में, उन्हीं के द्वारा आया हूँ।
मिला जगत् में सब कुछ, पर खुश न हो पाया हूँ।।
सीमित जरूरतें जीवन की, पर मन को समझाये कौन ?
"अतिबाद" है मूल मुसीबत , अनुभव ने यही बताया है।।

यहाँ सब कुछ पराया है, यहाँ कुछ भी नहीं अपना।
छोड़ते साथ एक दिन सब, जगत् व्यवहार है सपना।।
पराया कौन है जग में ? किसे अपना कहा जाये ?
सवालों से घिरा कब से, समझ में कुछ न आया है।।

मिले थे राह में एक दिन, हुई थी चार जब आँखें।
नजर से बात होती थी, नजर की थी गजब आँखें।।
सभी जग में हमारे हैं, जगत् व्यवहार होते हैं।
नजरिया जो जगत हो, अपने दिल से होते हैं।।

सँजोए थे बहुत सपने, हृदय के हार थे अपने।
मगर कुछ काम न आये, वक्त के रंग थे अपने।।
हुआ लाचार आ जग में, सभी लाचार हैं जग में।
समझ में आ नहीं पाया, धरम औ करम क्या जग में ?

खुलासा हो गया उस दिन, स्वार्थ का वेग जब आया।
समझ में आ गया उस दिन, जब कुछ साथ न दे पाया।।
आहार, निद्रा, भय औ मैथुन प्राणी धर्म विदित है।
"शैलज" मानव को विवेक कर्माभिशाप का वर है।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


आज का ताजा खबर :-

आज का ताजा खबर........
________________________
आज का ताजा खबर.........
आज का ताजा खबर.........
आज का ताजा खबर.........

बाबू जी! आ गया.............
आज का ताजा खबर..........
बाबू जी! आ गया.............
आज का ताजा खबर..........

पड़ी कानों में मेरी,
फट सा गया- हृदय ।
आँखें रह गई पड़ी पथराई सी ।

बज रहे सात थे रात्रि के,
था ठिठुर रहा- जाड़े के भींगी रातों में ।
जैसे सरसिज दल पर - शवनम की बूँद एक,
थरथर करता- अस्तित्व हीन ।

छलका चाहा- आँखों में आँसू की बूँद एक,
पर प्रेस्टिज था, क्या करता औ कैसे ?
भारत ! तेरी यह गति ...................?
हैं विलख रहे बच्चे तेरे, हो ठिठुर-ठिठुर,
इन शीतलहर मय रातों में,
जाड़े के मौसम में ।

राजे-रजवाड़ों को देखो -
तोशक तकिये औ कोट पैंट
नीचे में ऊनी बूट और
स्वेटर के नीचे है-तन-मन ।

जो मन में आया- हाजिर है ,
बच्चे उनसे हैं- खेल रहे,
कृत्रिम नवनीत प्रकाशों में ।
पढ़ने की इच्छा जागी तो-
एयर हैं, नौकर चाकर हैं ।
शोषण की शिक्षा लेने-
ये शिक्षालय जाते हैं ।
इनकी तो चलती है इतनी-
ये मन की बात चलाते हैं ।
गर मन चाहा तो ये देखो,
घर पर शिक्षक बुलवाते हैं ।

पर, यह तो जाड़े की एक रात,
ये तीन रात के भूखे हैं ।
अखबार बेच ये अपना पेट चलाते हैं,
बेबसी निगाहें डाल सोच कुछ-
आगे को बढ़ जाते हैं ।

परिवार चार, अवलम्ब एक ।
छोटा बच्चा- दस बरसातों को देखा है।
तपती धरती, जलती छाया,
हर
छुट चुकी नौकरी- विधवा माँ की,
झूठी-अफवाही आरोपों में ।

दलवाले करते आन्दोलन,
पुलिस करती है इंतजार ।

नेता करते हैं- राजनीति,
मीडिया बनाती समाचार,

घर-घर की यही कहानी है,
किस्से लिखते हैं- कथाकार।

कवियों की भीड़ उमड़ पड़ती,
गायक का चलता है व्यापार ।

ज्ञानी-विज्ञानी कलाकार
फिल्मों को मिलता- पुरस्कार।
नुक्कड़-नाटकों को बल मिलता,
ए.के.अपराधों से डरता,
सन् 'सैंतालिस' भूला-बिसरा ।

झंडा तिरंगा ले संविधान,
वृहत्तर भारत का ले विधान,
अब भी माँ के लिये शीश
कर रहे जवान हैं- वलिदान ।

पर,जाड़े में कम्बल मिलता,
वोटों को नोट मिला करता ।
होठों की, आँख मिचौनी से,
सत्ता का खेल चला करता ।
सत्ता-सत्य की चाल देख,
जनता दुनियाँ है- परेशान ।
                
(क्रमशः)

दिलचस्पी लेते हैं- अमीर,
घुटते जाते केवल गरीब ।
आज का ताजा खबर.........
आज का ताजा खबर.........
आज का ताजा खबर..........।
                

          ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत रचना मेरी पूर्व प्रकाशित रचना 'आज का ताजा खबर' का ही वर्तमान समय के सन्दर्भ में किसी भी तरह के पक्षपात से रहित तथा पूर्वाग्रह मुक्त पुष्पित, पल्लवित एवं विकसित संस्करण है।
         अतः सुधी पाठक गण से अनुरोध है कि प्रस्तुत रचना के सन्दर्भ में किसी प्रकार का अन्यथा भाव नहीं लेंगे ।
           - प्रो० अवधेश कुमार उर्फ शैलज
                    पचम्बा, बेगूसराय ।
  (प्रभारी प्राचार्य सह व्याख्याता मनोविज्ञान, एम. जे.जे.कॉलेज, एम., बनवारीपुर, बेगूसराय, कॉलेज कोड:८४०१४)।


रक्षा बन्धन हम सबका......

रक्षा बन्धन हम सबका......

निज अहं स्वार्थ को तजकर,औरों का दु:ख जो हरते।
"शैलज" पीड़ित मानवता का दर्द हैं वही समझते।।
दु:ख दर्द याद कर उनका, मन विह्वल हो जाता है।
जो वतन बहन के हित में सरहद पर मर मिटता है।।
दायित्व देश, जन हित का, रक्षा बन्धन हम सब का।
असमंजस भौतिक जीवन, अध्यात्म बोध अन्तस् का।
फैला आडम्बर जग में, सत पथ से उसे हटाऊँ।
फहरा निज कीर्ति पताका, हर दिल में प्रेम बसाऊँ।।
सम्यक् सर्वांगीण विकास का पाठ जगत को कैसे मैं समझाऊँ ?
विश्व गुरु भारत के चरणों में मैं अपना सिर रखकर सो जाऊँ।।
फहरा कर या ओढ़ तिरंगा आगे बढ़ता ही जाऊँ।
भारत माँ के चरणों में केवल अपना शीश झुकाऊँ।।
तुम आजाद रहो इस जग में तेरे हित मैं मिट जाऊँ।
कभी नहीं संकोच मुझे हो,कभी नहीं घबड़ाऊँ।।
शौर्य प्रेम के बल पर जग को गीता का पाठ सुनाऊँ।।
अन्तरतम की व्यथा कथा प्रिय, कैसे मैं तुम्हें बताऊँ ?

"ज्योतिष प्रेमी" डॉ० प्रो० अवधेश कुमार "शैलज" ऊर्फ "कवि जी",
पचम्बा, बेगूसराय।
  


हमको नित बोध रहे -

अन्तर्यामी ! दिव्य चेतना का हमको नित बोध रहे ।
सत्य सनातन धर्म ज्ञान का फैला अन्तर्बोध रहे।
हूँ मैं कौन ? कहाँ से आया ? किससे चालित होता हूँ ?
बोध हमें हो- क्यों हम जीते ? किस चिर निद्रा मे सोते हैं ?
किस विकास के क्रमिक विकास बोध ले हम धरती पर आते हैं ?
बोध हमें हो जग में आकर चिर कालिक क्या कर जाते हैं ?
देश, काल औ पात्र बोध का सम्यक् ज्ञान क्या होता है ?
क्या होती सम्यक् अनुभूति ? सम्यक् व्यवहार क्या होता है ?
अन्तर्यामी ! दिव्य चेतना का हमको नित बोध रहे ।
सत्य सनातन धर्म बोध का फैला अन्तर्बोध रहे।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


तोड़ रहे जो :-

तोड़ रहे हैं जो भारत को, गद्दार सदा कहलायेंगे।
मौज मनाते आज यहाँ, कल टुकड़े को पछतायेंगे।।
नीरस हड्डी अभिव्यक्ति की, चबा रहे खुदगर्जी में।
गृह स्वामी को चोर समझ करते हैं शोर वेशर्मी में।।
छोड़ धर्म दायित्व बोध, ये घूम रहे हैं मस्ती में।
भूक रहे हैं बेमतलब, चौराहों गलियों बस्ती में।।
चोर-चोर मौसेरे भाई, इन्हें लुभाते गली-गली।
चोर चौधरी इन्हें दीखता, चौकीदारी नहीं भली।।
लड़ते खुद में, अपनों से,अपनों को सदा लड़ाते हैं।
श्मशान में कब्र खोदकर, लाश मगन हो खाते हैं।।
हड्डी चबा रहे हैं केवल और नहीं कुछ पायेंगे।
पीकर अपने खून ये कुत्ते, पगलाकर मर जायेंगे।।

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


वेचारी हिन्दी :-

वेचारी हिन्दी (संशोधित) :-

श्रीमान् जनता जनार्दन ! हे भारत भाग्य विधाता !
वंदनीय हे आतिथेय ! हिन्दी के भाग्य विधाता ।।
करूँ अर्चना कैसे ? तेरे लायक कुछ पास नहीं है।
प्रेम भाव सेवा में अर्पित, चरणामृत हेतु खड़ी है ।।
नयनों में हैं नीर खुशी की, हिय में पीड़ भरी है।
सेवा में आवेदन लेकर अबला एक खड़ी है।।
हे भारत के संविधान! क्या मैं अपनी व्यथा सुनाऊँ ?
कैसा है भारत स्वतंत्र ? क्यों मूक बनी रह जाऊँ ?
चीर हरण हो रहा हमारा, आज हमारे घर में।
कब आओगे कृष्ण कन्हैया, द्रौपदी के आँगन में ?
दुस्सासन अंग्रेजी कौरव दल से घिरी हुई हूँ।
धृतराष्ट्र को नहीं सूझता, दल-दल में पड़ी हुई हूँ।।
शकुनि की है चाल, दुर्योधन को समझ नहीं है।
धर्मराज हैं मूक, भीष्म प्रतिज्ञा बहुत बड़ी है।।
जनता पाण्डुपुत्र बैठे है, मौन सत्ता के आगे,
कर्त्ता धर्त्ता तुम हो केशव, तुमसे संकट भागे।।
कैसे भूलें मूल्य नमक का ? सुधी जन सोच रहे हैं ।
कृष्ण तुम्हारा रूप बना कर छलिये घूम रहे हैं ।।
लेते हो अवतार, तुम्हें क्या बतलाऊँ,कहाँ पड़े हो ?
धर्म सनातन की रक्षा का प्रण क्या भूल गये हो ?
कृष्ण! द्वारिकाधीश ! श्री हरि! स्रष्टा, पालक, संहर्ता ।
रक्षक संस्कृति संस्कृत के, तुम प्राकृत के स्रष्टा ।।
राजभाषा मैं, मातृभाषा हूँ, भारत के जन-जन की।
हर भाषा का सम्मान है करना, प्रकृति मेरे जीवन की।।
मेरे समृद्धि और विकास में सब सहयोग मिला है।
हृदय कपाट सभी के हित में सब के लिए खुला है।।
सब हैं एक समान हृदय से भारत के या जग के ।
सम्यक् सर्वांगीण विकास हो जग के हर मानव के।।
भारत के जन से स्वेच्छा से जो सम्मान मिला है।
उस राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा अबतक नहीं मिली है ।।
कम्प्यूटर ,आफिस ,घर में भी अंग्रेजी का पहरा है ।
दस्तावेजों, न्यायालय में ऊर्दू-फारसी का लफरा है ।।
निज अस्तित्व-अस्मिता हेतु मैं संघर्ष नित्य करती हूँ ।।
सत्ता का डर नहीं, साहित्यकारों से केवल डरती हूँ।
राजनीति के दलदल, स्वार्थी चाटुकारों का है डेरा ।।
बसती हूँ जन-मन गण में, लेकिन नारद का है फेरा ।
करती हूँ आतिथ्य सभी का, करती हूँ अभिनन्दन।
लाज आपके हाथों में है, करती हूँ मैं पद वन्दन।।
गिलवा और शिकायत कुछ भी मुझको नहीं किसी से।
फिर भी कथा व्यथा सुनाना पड़ता है मुझको अन्तस् से।।
अभी-अभी आ रही यहाँ थी,आमणत्रंण मुझे मिला था ।।
हिन्दी मैं अपने सम्मान दिवस में मन मेरा उलझा था ।
आमन्त्रित थी सारी भाषाएँ , मैं आतिथ्य में रत थी।
पर कुत्सित भावों से भर कर अंग्रेजी वहाँ खड़ी थी।।
अकस्मात् ही लगी बोलने बहुत क्रोध में भरकर।
पूज रही थी पैर, परन्तु वह कहने लगी अकड़कर।।
निकल ईडियट, कैसे तूने सन्मुख आने की ठानी,
गेट आऊट, कम्बख्त ! मैं हूँ सब भाषा की रानी।।
"हिन्दी-दिवस" तुम नहीं जानती, अंग्रेजी जीवन है ।
चले गये अंग्रेज सभी, परन्तु आत्मा अभी यहीं है ।।
नहीं जानती तुम मेरा वर्चस्व जगत भर में है।
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का भी रूप हमारा ही है।।
प्राकृत सभी भाषा की माता, हिन्दी मूल संस्कृत है।
पर उसकी ममता हिन्दी, तुम पर ही क्यों रहती है ?
अंग्रेजी क्रोध मान्यवर इतना पर भी न घटा है।
सब भाषा से मिलकर उसने नया प्रपंच रचा है।।
हिन्द देश की अखण्डता दीख रही खतरे में।
भाषा संस्कृति एकता अखण्डता यही हिन्द का बल है।
सत्य न्याय शान्ति सद्भावना भावना भारत का सम्बल है।।
पूज्य मान्यवर मेरी इसमें गलती कहीं नहीं है।
सारे जग की भाषा में आत्मा मेरी बसती है।।
अबला की आवाज जनार्दन कबतक आप सुनेंगे ?
अन्तर्यामी चीर-हरण को कबतक आप सहेंगें ?

प्रो० अवधेश कुमार ' शैलज ', (कवि जी),
पचम्बा, बेगूसराय ।
( क्रमशः )


डर से मैं सुधर रहा हू

डर से मैं सुधर रहा हूँ....।

पता नहीं क्या हो गया मुझे,
अन्दर से डरा हुआ हूँ...।
अपनों के नित ताने सुनकर,
अन्दर से टूट चुका हूँ.....।
डर से मैं सुधर रहा हूँ......।

बार-बार अवलोकन करता,
अन्तस् के अन्दर जाकर .....।
लोगों के आदर्शों का कब से,
बोझ मैं उठा रहा हूँ.......।
डर से मैं सुधर रहा हूँ.....।

धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य मार्ग का,
लगा हुआ है फेरा....।
ऐसे में क्या करूँ ?
सोचने को मैं विवश हुआ हूँ...।
डर से मैं सुधर रहा हूँ....।

देश, काल औ पात्र बोध है,
प्राकृतिक धर्म सिखलाता.....।
स्वार्थी मानव की संगति का,
भोग मैं भोग रहा हूँ.....।
डर से मैं सुधर रहा हूँ.....।

( क्रमश:)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


कंचन :-

कंचन
कंचन कंचन का होता है,
पर,कंचन न कंचन होता है।
लेकिन वास्तव में कंचन के
रूप अनेकों होते हैं।
कंचन मन को कंचन करता है,
कंचन न कंचन  करता है।
कंचन अपने दर्शन से,
सदा अचम्भित करता है।
कंचन कंचन है दर्शन में,
कंचन से दिल कंचन होता
कंचन से सजती हैं दुल्हन,
कंचन से मिलती है इज्ज़त
कंचन से आता है संकट,
कंचन से खजाना भरता है।
मृग मारीच बना कंचन,
मर्यादा को भी भटकाता है,
लक्ष्मण सा स्थिर मन को भी,
वह विचलित कर जाता है।
सीता हरण, रावण मरण
कंचन युद्ध कराता है।
कंचन जोड़ता है हमको,
अपनों से जुदा कराता है।
निज सभ्यता संस्कृति से कर दूर,
हमें कुपथ कुराह बताता है।
कंचन अथाह, कंचन अभाव,
दोनों निज रुप दिखाता है।
कंचन दोनों मौके पर
सन्यास मार्ग दिखलाता है।
कंचन तमोगुणी होकर
अमानवीय कर्म कराता है,
कंचन रजोगुणी होकर
संसाधन सुलभ कराता है।
कंचन सतोगुणी होकर
जीवन रक्षक हो जाता है।
शैलज कंचन के खातिर,
आखिर नर क्यों मरता है?
कंचन खातिर मरता है वह,
कंचन के खातिर जीता है।
पर, अन्तिम क्षण में कंचन,
न संग उसे दे पाता है।
कंचन कंचन रटते रटते,
जीवन को तज वो जाता है।
कंचन ध्येय न हो जीवन का,
अनुभव यही बताता है,
कर कंचन का उपयोग सही,
नर दुर्लभ सुख पा सकता है।
कंचन से जीवन पाता है,
कंचन से जीवन जाता है।
कंचन मन कंचन पा करके
जीवन कंचन कर पाता है।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


स्वतंत्रता दिवस :-

स्वतंत्रता दिवस भारत की अस्तित्व अस्मिता की पहचान।

स्वतन्त्रता दिवस दमन चक्र से हमारी मुक्ति की पहचान है।सलोकहित निज अस्तित्व सुरक्षा की विवेकमय पहचान है।
सदियों से पीड़ित मानवता की यह मुक्ति पर्व महान् है।
स्वतंत्रता दिवस तिरंगे झंडे का अभिनन्दन सम्मान है।
हम भारत के जन-जन का यह राष्ट्रीय पर्व महान् हैृ।।
ब्रिटिश दमन चक्र से भारत की मुक्ति की दास्तान है।
लाल किले को किया सुशोभित पूर्वज का बलिदान है।
सेना नायक आजाद हिन्द के संकल्पों का परिणाम है।
अक्टूबर इक्कीस वर्ष तैतालीस का है यह परिणाम।
आजादी में नेताजी सुभाष का है योगदान बलिदान।
यह अखण्ड भारत भूमि के खण्डन का है परिणाम।
नेहरू, जिन्ना, अंग्रेजों की नीति का निकाला परिणाम।
हिन्दू राष्ट्र बना यह भारत, मुस्लिम का पाकिस्तान।
गाँधी की उदार नीति का हम भोग रहे नित परिणाम।
हिन्दू माने संविधान देश का,मुस्लिम के लिए कुरान।
कहलाने को एक राष्ट्र पर मुल्लों का अलग फरमान।
हिन्दू सिन्धु हृदय सनातन, भगवा सत् पथ की पहचान।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख,ईसाई नागरिक भारत की संतान।।
हम सब मिल कर एक रहें, करें एक दूजे का सम्मान।
करें अहर्निश राष्ट्र वन्दना, करें राष्ट्र सम्मान।
नहीं विश्व की कोई शक्ति कर पाये अपमान।।
मनसा वचसा कर्मणा करें हम भारत का सम्मान।


लाज बचाओ

सकल विश्व में व्याप्त प्रभु,
हम सब की लाज बचाओ।
अन्धकार, अज्ञान हरो हर,
शक्ति सद्ज्ञान बढ़ाओ।।
प्रेम बढ़े, दिल दु:खे नहीं,
व्यवहार सरल सिखलाओ।।
सकल सुमंगल छाये जग में,
तन मन स्वस्थ बनाओ।।
सकल विश्व................।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


श्याम सुन्दर....

श्याम सुन्दर....

प्रो० अवधेश कुमार
उपनाम: शैलज / कवि जी,
पचम्बा, बेगूसराय ।

श्याम सलोने गात मनोहर,
धवल सजल चितहारी ।
व्योम क्षितिज पर शोभत
निशि दिन, वर्षा कान्त विहारी ।।
मेटत शशि कलंक नित नीरज,
सकल संकोच विहाई।
भृगु-गृह वृषभ श्रमित रवि हित,
करत शशि अगुवाई।।
'शैलज' कर अवलोक मिलन सुख
सब संकोच विसारे ।
मोर,चकोर, घनश्याम ध्यान में,
तन-मन सुधि खो डाले ।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


मैं शैलज हूँ

मैं शैलज हूँ ।

मैं शैलज हूँ,जड़ पत्थर हूँ,
मैं शिलाजीत कहलाता हूँ ।
औरों के दुःख दर्दों को-
मैं सहज हजम कर जाता हूँ ।।
मैं शैलज हूँ..........।

मैं शैल खण्ड, मैं शैल पुत्र,
शैलजा तनय, मैं शैलज हूँ।
मैं शैल श्रृंग के कण-कण में,
पर्वत कण शैलज कण हूँ।।
मैं शैलज हूँ.........।

मैं शैल, गुफा, नदी, नद, निर्झर,
मैं झील , सरित, सर ,डाबर हूँ।
मैं वन,उपवन, फल,फूल, कुंज,
दर्रा घाटी का पत्थर हूँ ।।
मैं शैलज हूँ.......।

मैं सृष्टि का अति सूक्ष्म कण,
मैं जड़-चेतन कहलाता हूँ ।
मैं ही आकृति, मैं पृष्ठभूमि,
स्रष्टा का एक उपक्रम हूँ ।।
मैं शैलज हूँ...........।
(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


सोचता हूं

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

'सोचता हूँ' :-

क्या कहा ?
बाबू जी ! भूखा हूँ .....नंगा......हूँ।
क्या कहूँ ? बाबू जी- पूरा भिखमंगा हूँ।हटो.......-रास्ते से ,नहीं तो लूँगा - डंडे से खबर.....।
बाबू जी.....!  जाड़े का मारा हूँ.....।
क्या कहूँ ? बाबू जी.........।
पूरा वेचारा हूँ।....बाबू जी.....।
हटाओ इसे......।
वक्त खाता जाता है।
व्यर्थ वकवास में मुझे यह फँसाता है......।
बाबू जी ! पाले से पड़ा पाला है ।
आप मेरा रखवाला हैं।
हटेगा नहीं यह ।
मार दो धक्का इसे ।
चढ़ा दो चक्का- सीने पर।
यह तो- बाबू जी का- साला है।
आह ! बाबू जी ! अच्छा किया आपने - छुटकारा दिला दिया  जो मुझे विपदाओं  के इस चक्कर से ।
जन्म-जन्मान्तर से ।
सोचा था, वास्ते आपके झेलूँगा -सब कुछ, पर, तुम पर न ढ़लने दूँगा-सितम ।
आह बाबू जी ! आह बाबू जी ।
अब तो चला- अहले सितम ।आह बाबू जी !आह बाबू जी !
एक चींख निकली !गुजर गयी- कार ।
बुड्ढे को ढ़कती हुई
फैली चारों तरफ- गर्द वेशुमार ।
रह गई, मेरे कानों में, गूँज एक- बाबू जी ।
सभा से लौटते वक्त......।
लम्बी सड़क पर..... कार की लाईट में ।देखा सियार को- जूझते...... उसी बुडढ़े की लाश पर।
पर, उस समय कहाँ मुझे अवकाश था ।
दूसरे ही दिन, अखवारों में पढ़ा.......वह और कोई नहीं- मेरा ही- बूढ़ा बाप था ।
सोचता हूँ.......... यह तो अनर्थ है कि मैं ही अपने बाप का हत्यारा हूँ ।
अत: क्यों न पत्रकारों को कोई नया ईशारा दूँ।

:- प्रो० अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय।


भिक्षुक :-

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

'भिक्षुक' :-

बस, आज अभी की बात,
पकड़िया के नीचे
बैठा था-नर-कंकाल एक
-दुपहरिया की जलती छाया में।
मत कहो इन्हें -भिक्षुक।
ये वेचारे हैं- निर्ममता के मारे हैं।
फँसा दिया है, इनको -समाजवालों ने।
झूठी-अफवाही जालों में।
लूट ली सारी जमीन ।
अब,पग रखने को जगह नहीं है।
ये हैं समाजवाले- दलाल, शोषक औ मक्कार ।अपने को कहते- समाजवादी ।
ले लिया- जगह, न काम दिया,
न पारिश्रमिक औ न आराम दिया।
सब लिया औ बदले में क्या दिया- सुने.......बेबसी, अमित व्यथा औ ....................अन्ततः
-दो मुट्ठी दाने, दो गज वस्त्र हेतु-
-सदा के लिए भिक्षुक बना दिया........।

:- प्रो०अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय।


उठ जाग प्रिय :-…

दिवा-निशा मिलन महोत्सव

उठ जाग प्रिय! उठ जाग जाग, आने को है प्राची प्रकाश।
निस्तब्ध निशा,नि:शब्द दिशा, अरुणाभ हो रहा है आकाश।।
झिंगुर धुन ध्यान लगाये हैं, निशिचर मन मोद बढ़ाये हैं।
बज रही मधुर नारद वीणा, मादकता नयन समायी है।।
रात्र्यान्तिम प्रहर, हो रही भोर, ले रही निशा अंगराई है।
चन्दा को पुनः मनाने को, जुगनू ने जुगुत लगायी है ।।
काजल में छिपे उगे सूरज, प्रिय नयन छटा मनुहारी है।
फैली है ज्योति जगत भर में, अरुणाभ छटा अति न्यारी है।।
चहचहा रही कब से चिड़ियाँ, खग-कुल ने शोर मचाई है।
हो गई, भोर उठ जाग प्रिय, मुर्गे ने बाँग लगायी है।
तारक प्रहरी थक सोये हैं, अलसायी नयन लजाई है।
रति-काम युगल मदन रस पा, तन्वंगी सोयी अलसाई है।।
दिन-रात मिलन में साँझ-उषा, रवि-निशि दे रहे बधाई हैं।
प्रातः वन्दन करती सखियाँ, स्वर राग पलासी छायी है।।
उस पार छितिज सायं-संध्या, दरबारी स्वर लहरायी है।।
गोधूलि गोपाल चरण वन्दन, गोपिका ग्वाल सब आये हैं।
स्नेहिल पिय हिय चरणरज से, प्रभु ने संताप मिटाये हैं।।
रवि-निशि दिन-रात मिलन उत्सव, अभिनव मादकता दायी है।
मलय समीर शबनम सिक्त कली संग करत बसन्त अगुआई हैं।।
अण्डज,पिण्डज,उद्भिज नारी-नर निज सुधि तज डाली है।
प्रकृति-पुरुष मिलन जग जाहिर प्राकृतिक प्रेम बढ़ायी है।।
दो प्रहर मिलन अदभुत संगम, घनश्याम घटा नभ छायी है।
पिया मिलन वन जन मन मोर चकोर स्वसुधि बिसराई है।।
आरुढ़ अरुण संग रश्मिरथी, रथ सप्त अश्व युत सारथी संग।
वन,देवी-देव,नर-नारी गण, मुनि-दनुज कर रहे अभिनन्दन।।
"शैलज" राग पराग महोत्सव हर ओर जगत में छायी है।
अलि देवांगना दिव्यांगना संग प्रभु पद पखारने आयी है।।

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दिवा निशा मिलन :-

दिवा-निशा मिलन महोत्सव

उठ जाग प्रिय! उठ जाग जाग,है आने को है प्राची प्रकाश।
निस्तब्ध निशा,नि:शब्द दिशा,अरुणाभ हो रहा है आकाश।।
झिंगुर धुन ध्यान लगाये हैं, निशिचर मन मोद बढ़ाये हैं।
बज रही मधुर नारद वीणा, मादकता नयन समायी है।।
रात्र्यान्तिम प्रहर, हो रही भोर, ले रही निशा अंगराई है।
चन्दा को पुनः मनाने को,जुगनू ने जुगुत लगायी है ।।
काजल में छिपे उगे सूरज, प्रिय नयन छटा मनुहारी है।
फैली है ज्योति जगत भर में,अरुणाभ छटा अति न्यारी है।।
चहचहा रही कब से चिड़ियाँ, खग-कुल ने शोर मचाई है।
हो गई, भोर उठ जाग प्रिय, मुर्गे ने बाँग लगायी है।
तारक प्रहरी थक सोये हैं,अलसायी नयन लजाई है।
रति-काम युगल मदन रस पा, तन्वंगी सोयी अलसाई है।।
दिन-रात मिलन में साँझ-उषा, रवि-निशि दे रहे बधाई हैं।
प्रातः वन्दन करती सखियाँ,स्वर राग पलासी छायी है।।
उस पार छितिज सायं-संध्या,दरबारी स्वर लहरायी है।।
गोधूलि गोपाल चरण वन्दन,गोपिका ग्वाल सब आये हैं।
स्नेहिल पिय हिय चरणरज से,प्रभु ने संताप मिटाये हैं।।
रवि-निशि दिन-रात मिलन उत्सव, अभिनव मादकता दायी है।
मलय समीर शबनम सिक्त कली संग करत बसन्त अगुआई हैं।।
अण्डज,पिण्डज,उद्भिज नारी-नर निज सुधि तज डाली है।
प्रकृति-पुरुष मिलन जग जाहिर प्राकृतिक प्रेम बढ़ायी है।।
दो प्रहर मिलन अदभुत संगम,घनश्याम घटा नभ छायी है।
पिया मिलन वन जन मन मोर चकोर स्वसुधि बिसराई है।।
आरुढ़ अरुण संग रश्मिरथी,रथ सप्त अश्व युत सारथी संग।
वन,देवी-देव,नर-नारी गण,मुनि-दनुज कर रहे अभिनन्दन।।
"शैलज" राग पराग महोत्सव हर ओर जगत में छायी है।
अलि देवांगना दिव्यांगना संग प्रभु पद पखारने आयी है।।

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हिम शैल श्रृंग:-

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

हिमशैल शैलश्रृंग :-

वह कौन ? अरे, हिम शैल  श्रृंग।
अव्यय, अव्यर्थ, अवर्ण्य श्रृंग।
अवढ़र, अमेय, अविकार श्रृंग।
अविकल, अशेष, अविकल्प श्रृंग।
सुषमा मंडित निरपेक्ष श्रृंग।
वह कौन ?अरे, हिम शैल श्रृंग ।

(क्रमश:)

:- प्रो० अवधेश कुमार 'शैलज ', पचम्बा, बेगूसराय।


आँसू

रुक-रुक क्यों तू ढ़लकता ?
बहता जा तू अविरल रे ।
अविराम अनन्त सुख-दु:ख में,
मिटता जा घुल शैलज कण में ।
अरुणाभ कपोलों से गिर गिर से,
टूटे न हृदय औ मन रे ।
इसलिए सुनो मेरे सुन्दरतम् !
बहता जा तू अविरल रे ।

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज" ,पचम्बा, बेगूसराय ।


आराध्य :-

जीवन जो है मिला हमें,
सार्थक उसे बनाना है ।
अन्तस् में पीड़ा सहकर
जन जन को हर्षाना है।।

अपनों ने दिया सहारा,
अपनों ने किया किनारा ।
कोई दोष नहीं है उनका,
हतभाग्य कर्म का मारा ।।

जो हो आगे बढ़ना है,
निज पथ पर नित चलना है ।
गिरकर फिर उठना है,
उठकर आगे बढ़ना है ।।

आराध्य ईष्ट पाने को,
कर चुका समर्पित निज को ।
काँटे हों पथ में जो भी,
फूलों-सा उनसे मिलना है ।।

अन्तस् के महामिलन का,
यह पर्व अनोखा होता ।
एक दूजे में मिल जाते,
तू-तू मैं-मैं मिट जाते ।।

तू हो विराट अति उज्जवल,
तू स्नेह स्निग्ध अति निर्मल ।
कर सकते तू ही पावन,
"शैलज" को निर्मल उज्जवल ।।

कब से मैं नयन बिछाये ?
हूँ बाट जोहता तेरी ।
क्यों निर्मम बने हुए हो ?
लखकर लाचारी मेरी ।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


प्रियवर

प्रियवर, प्राणेश सभी के, तू प्रेम की राह बताते ।
सारे जग के प्राणी में, तू प्रेम की आग लगाते ।।
जिसकी लपटों में जलते, प्रेमी जन हैं अकुलाते ।
प्रिय के मधुर मिलन से, सब घाव तुरत भर जाते ।।
दिन रात याद आती है , प्रियवर , प्राणेश तुम्हारा ।
तुझसे ही है यह जीवन , तुझमें ही है जग सारा ।।
तुम सारे जग के प्रियवर, प्रिय हिय में तुम बसते हो ।
हम सब की प्रेम कथा को, दिन रात रचा करते हो ।।
हो प्रेम हमारा शाश्वत, कुल धर्म हमारा जागे ।
दो कूलों के मधुर मिलन से, तम-रज सतगुण से भागे ।।
अतिवाद विवाद तजें हम, उन्मुक्त गगन में विचरें ।
पक्षों के पक्ष न जाकर, सत् मध्यम पथ अपनावें ।।
प्रिय हो प्रियतम जग सारा, अप्रिय समूल नशावे ।
प्रिय के स्नेहिल चिन्तन से, सारी थकान मिट जावे ।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


व्यक्तिवाद

व्यक्तिवाद है जीवन, लेकिन आश्रय वाद लगा रहता है ।
प्राणी क्या ? सृष्टि का कण-कण आपस में जुड़ा रहता है ।।
जहाँ जन्म लेते, रहते, बढ़ते, पढ़ते हैं अग जग को ।
करते हैं निज का विकास, औ राह दिखाते जग को ।।
तन-मन की निर्भरता जग के कण-कण से जुड़ी हुई है ।
जग के सारे सम्बन्धों-रिश्तों की बनती एक कड़ी है ।।
कारण-कार्य जगत् का नियम, एक अटल अविचल है ।
प्रकृति-समरुपता से जगती की माया टिकी हुई है ।।
आगम-निगम तर्क सम्यक् है, सुपथ सुराह बताता ।
ऊँच-नीच का भेद बता कर, मध्यम है हट जाता ।।
पूर्ण पूर्ण है, पूर्ण अधूरा, पूर्ण शून्य है पूरा ।
प्रकृति चाहती है नकार कर, पुरुष चाहता पूरा ।।
ऋण-धन का आवेश जगत् में विद्युत ऊर्जा लाता।
आकर्षण का बीज वपन कर, जग में है छा जाता ।।
( क्रमशः)


काजल :-


काजल तू आँखों की शोभा,
आँखों को दिव्य बनाती है।
अनुपम सौंदर्य छटा तेरी,
लख प्रकृति नटी लजाती है।।

तू लिपट बरौनी संग पलक,
घन श्याम घटा बन जाती है।
मद मस्त मधुप संग केलि प्रसंग,
नित तेरी छटा बढ़ाती है।।

काजल कपोल की शोभा तू,
आनन की छटा बढ़ाती है ।
गोरे क्या, श्यामल गालों की,
शोभा को सदा बढ़ाती है ।

तू भेद बुद्धि से रहित सदा,
प्रियतम प्रियतमा मिलाती हो ।
तू काम मोहिनी तन्वंगी,
तुमसे अलि रति लजाती है ।।

प्रिय संग तुम्हारा पाकरके,
अभिचार चकित हो जाते हैं।
तेरे संग नयनों के कटाक्ष,
घायल उर को कर जाते हैं।

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा,
बेगूसराय ।


राधा :-

राधा
.............

राधा तू मेरे जीवन की,
मेरी प्रकृति की धारा ।
तेरे विना नहीं मिलता है,
कोई कूल किनारा ।

तू चिन्मय आनन्दमयी औ
मैं चिन्मयानंद कहाता ।
तेरी माया के कारण ही
मैं जड़-चेतन को रच पाता ।

राधे! प्रकृति तू आदि शक्ति,
मैं पुरुष कन्हैया तेरा हूँ ।
तू सगुण, तुम्हारा निर्गुण मैं,
अर्धनारीश्वर कहलाता हूँ।

तेरा दर्शन श्रम हर लेता,
ममता मयी तू, माता हो ।
वात्सल्य तुम्हारा अनुपम है,
तू त्रिविध ताप की त्राता हो ।

अक्षय है प्रेम, कृपा तेरी,
मैं कृपानिधि कहलाता हूँ ।
राधे!राधे! जो जपते रहते,
उनमें जाकर बस जाता हूँ ।

तुझसे न होऊँ अलग राधे!
बस राह यही रह जाता है ।
तू माँ हो, ममता की मूर्ति हो,
सच कहूँ- बहुत अकुलाता हूँ ।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


अदद दर्द :-

कहो रूठ कर क्यों रुलाते हो मुझको?
अदद् दर्द दे क्यों बुलाते हो मुझको?
यों रूठ कर क्यों मनाते मुझे हो ?
आखिर अदद् दर्द देते ही क्यों हो?

गफलत है तेरी या गलती है मेरी ?
दबा दर्द दिल में , बताते नहीं हो?
बताओ तो जानूँ,क्या चाहत है तेरी?
तू भी जान पाओ, क्या दिल में है मेरी ?

वर्षों से आ रही अखण्डित कहानी।
रूठने की है तेरी ये आदत पुरानी ।।
लेकिन तेरे दिल की ये लम्बी बीमारी।
मन से यों उपजी कि दु:ख है हमारी।।

क्या मिलता है यों,जो मुझको सताते ?
हो दिल से बुलाते,या नफरत दिखाते ?
अजब सोच तेरी, गजब की अदा है ।
दिशा हीन हूँ क्या, जो ऐसी सजा है ?

समर्पित है तेरे लिए मेरा तन-मन ।
समर्पित है तेरे लिए मेरा जीवन ।।
कहो रूठ कर क्यों रूलाते हो मुझको?
अदद् दर्द दे क्यों बुलाते हो मुझको ?

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


मीत मेरे, प्रीत तेरे

बीतता जो एक लम्हा
युग-युगों सा लग रहा है।
भीड़ में खोया हुआ हूँ,
स्वप्न सा सब लग रहा है।।

मीत मेरे प्रीत तेरे,
बस जिलाये रख रहा है।
तूँ कहाँ ? किस ठौर में हो?
यह जिलाये रख रहा है।।

पूछता - खग, अलि, जन से,
खोजता हर कुंज वन में ।
मारीच मृग से भरे जग में,
सखा आशा साथ मग में ।।

जब तुम्हें हूँ याद करता,
एक बस फरियाद करता।
किस खता पर ? क्यों खफा हो ?
बता दो, फरियाद करता।।

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज",पचम्बा, बेगूसराय।


शुभ हो तुम्हारा -

यादों में तुम्हारे दिन रात बीतते हैं।
तू हो कहाँ? हर रोज खोजते हैं ।।
वह कौन सा समय है जो आप छूटते हैं।
कैसे बताऊँ जग को? जो आप रूठते हैं।।
जाता जहाँ जहाँ में, बस आप दीखते हैं।
हो रूप जो जहाँ भी,हर ओर दीखते हैं।।
बन-बाग, पर्वतों में; नद, झील, निर्झरों में।
शहर गाँव खेतों में,मिलते हो झाड़ियों में ।।
कड़ी धूप दिन की या रात चाँदनी हो।
मिलोगे तुम मुझको आखिर विवश हो।।
भटकता गमों में, यादों में ढ़ूँढ़ता हूँ।
अन्तर्जगत में तुमको दिनरात देखता हूँ।।
जंगल में बन पशुओं का शोर हो रहा है।
देखो तो सिंह गर्जन घनघोर हो रहा है।।    
चिग्घाड़ते हैं हाथी,मद मस्त होकर बन में।
लिपटे भुजंग चन्दन बिष छोड़ सुधा बन में।।
ऋषि-मुनि अप्सरा के संग हैं कहीं मगन होकर।
लिपटी तरु लतायें सब लोक लाज तज कर।।
कुसुमाकर आखेट में हैं निज पुष्प वाण लेकर।
सखा बसन्त संग में हैं सर्वस्व निज का देकर।।
पशुपति कृपा से रति काम रीझते हैं।
होकर अनंग जग में चहुँ ओर दीखते हैं।
फिकर बस हमारी तुमको नहीं है।
मिलने की कोई वेकरारी नहीं है।।
स्नेह से प्रेम पादप को दिल में हूँ रोपा।
दिल एक था जिसे मैंने तुझको है सौपा।
मेरे तुम्हीं एक, पर हजारों हैं तेरे।
लेकिन हमारे तो तू ही हो मेरे।।
किसे मैं जगत में कथा यह सुनाऊँ।
तुम्हें कैसे अपनी व्यथा मैं सुनाऊँ।।
सुबह-शाम, दिन-रात शुभ हो तुम्हारा।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


तुुुम जाते हो :-

तन-मन रंगने तुम जाते हो,
जब छोड़ प्राकृतिक सिद्धान्तों को ।
लघु जीवन है, पर क्या पातें हो ?
वास्तविक आनन्द रहित चिन्तन में।

न्याय मांगने तुम जाते हो,
सद् पंच छोड़,कुलंगारों से ।
अन्यायी, संविधान विरोधी,
मूर्ख,मानवता के हत्यारों से।

करने शासन तुम जाते हो,
जन प्रतिनिधि बन सत्ता में।
जनता भी हो भूल जाते हो,
धन-पद,दल-बल की मस्ती में।

वोट डालने तुम जाते हो,
अच्छे को छोड़, मक्कारों को।
सत्ता भोगी, पक्ष-विपक्ष के,
नेता और दलालों को ।

शिक्षा-दीक्षा को तुम जाते हो,
सद्गुरु तज, गुरुघंटालों से ।
शुभद् कला-विज्ञान छोड़,
अपनाते नित अंगारों को ।

दवा कराने तुम जाते हो,
सद् वैद्य छोड़, लुटेरों से ।
काम,क्रोध,लोभ वश झेलते,
मनो-शारीरिक तापों को ।

दुआ कराने तुम जाते हो,
संतों को छोड़ असन्तों से ।
तन्त्र, मन्त्र औ यन्त्र शक्ति
को दूषित करते आचारों से ।

नौकरी पाने तुम जाते हो,
नीचों,निर्दय, कंजूसों से।
शोषक , अमीर , अभिमानी
क्यों जाने ? काश गरीबी को!

करने विवाह तुम जाते हो,
पर यदि निवाह न पाते हो ।
सहधर्म समझ न जब पाते,
दुनिया को क्या सिखलाते हो ?

सम्बन्ध बनाने तुम जाते हो,
नि:स्वार्थ, स्वार्थ जिस कारण से।
भोगते प्रभाव उसका ही तुम,
संचित, प्रारब्ध या तत्क्षण में।

साधना करने तुम जाते हो,
जब तत्व ज्ञान हो जाता है,
अष्टांग योग के साधन या
व्यवहार सरल आसानी से।

अज्ञान कुपथ तुम जाते हो,
जब सत्य बोध न होता है।
है प्रकृति-पुरुष का प्रेम प्रबल,
शाश्वत यह अनुभव होता है।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगुसराय ।


नव बसन्त:-

मोर,चकोर,मधुकर किलोल कर
मनमोहन श्याम रिझावे ।
काम रति संग प्रियतम ! हे अलि!
अहर्निश मधुमय रास रचावे ।।

मन्द समीर सुगंध उड़ेलत,
अति अनुराग दिखावे ।
तजि संकोच वेल-विटप
संग,नारी-नर अनुरागे ।।

घहड़त - चमकत घटा गगन में,
बरसत-छलकत पानी ।
वृद्ध वयस सकोच अति पावत
करत बाल समूह नादानी ।।

विसरे सुधि जलधि निर्झर नद,
जलद चाल मतवाली ।
झूमत- पादप, विटप व तरुगण,
पत्र,कुसुम औ डाली ।।

विविध पुष्पमय धरती सारी,
महक रही है क्यारी ।
विटप वेल मदन रस पाकर
सब संकोच विसारी ।।

काम अनंग मदन कुसुमायुध
रति पर डोरे डाले।
सुमिरि सुरेश, महेश, कृपानिधि
किये जगत् मतवाले ।।

धवलेरावत आरुढ़ शचीपति,
वज्र चरण ले आये ।
सुर नर मुनि गण सकल चराचर,
प्रभु पद शीश नवाये ।।

'शैलज' पद सरोज पखारन
नीरद जलद पुकारे ।
भूमि व्याप्त जल अति सकोच वश,
सुगम सुराह उचारे ।।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


पगडंडी

पगडंडी

दो "आनन्द" जहाँ मिलते हों, " पाठक " आनन्दित होते हों।
"राम" "रमण" करते हों जहाँ,"नारायण"अवतरित होते हों।।
नमस्कार ऐसे भविष्य के " अग्नि-पथ " के राही को।
अपने पथ की चिनगारी जो देते हैं " पगडंडी " को।।
ये " प्रगतिशील " हैं, लेखक हैं, ये रचनाकार कहाते हैं।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद विशारद, साहित्यकार कहाते हैं।।
ये पूँजीवाद के प्रबल विरोधी, वास्तव में सुखवादी हैं।
ये हृदयहीन ,बुद्धिवादी, आध्यात्म समझ न पाते हैं।।
रोटी सा इनका गोल विश्व, रोटी सा इनका सहज विश्व।
रोटी सा इनका सरल विश्व,रोटी पाकर सन्तुष्ट विश्व।।
रोटी तक सिमट सदा रहते,रोटी पर ये बिक जाते हैं।
भौतिक सुख पीछे पागल, सत्ता लोलुप हो जाते हैं।।
सन्मार्ग में बढ़ते जब भी, आदर्श छोड़ ये जाते हैं।
है इदं अहम् ही परम अहम्, इसमें ही सुख ये पाते हैं।।
नमस्कार ऐसे भविष्य के " अग्नि पथ " के राही को।
अपने पथ की चिनगारी जो देते हों "पगडंडी" को।।

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज",पचम्बा, बेगूसराय।


आँख मिचौली

आँख मिचौली

खेल गजब की आँख मिचौली,
अजब मित्र की मेल।
आँख बन्द पर देख रहे पूर्व-सा,
कैसा अदभुत खेल ?

करते हो आँख मिचौली,
डरते समाज के डर से।
फिर भी तुम मिलते हो,
सहृदय सदा अन्तर से।।

निरपेक्ष खेल प्रकृति का,
बस पुरुष समझ पाता है।।
इस प्रेममयी पीड़ा को,
जग समझ कहाँ पाता है ?

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज",पचम्बा, बेगूसराय।


ख्याल में किसके

ख्याल में किसके ? क्या तुम सोचते हो ?
और अपने आप से क्या तुम बोलते हो ?
ढ़ूढ़ते किसको ? किसे पहचानते हो ?
पूछते किसका पता ? क्या जानते हो ?

भीड़ से एकान्त में आकर अकेले,
दीखते हो शान्त, पर क्या झेलते हो ?
किन गमों की भीड़ में खोये हुए हो ?
खोये हुए से क्या पता तू पूछते हो ?

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


यह गणतंत्र महान् :-

यह गणतंत्र महान्......

हम भारत के जन-जन हेतु यह गणतन्त्र महान्।
हम भारत के सारे जन का है यह पर्व महान्।।
आओ आज करें हम सब मिल भारत का जय गान।
हम भारत के जन-जन हेतु यह गणतन्त्र महान्।
रावी तट, आजाद हिन्द का है यह पर्व महान्।
हम भारत के जन-जन हेतु यह गणतन्त्र महान्।।

राष्ट्र-पर्व पर राष्ट्र-ध्वज का घर-घर हो गुणगान।
लाल किले पर फहरे पहले यह ध्वज ससम्मान।।
भारत की अस्मिता-अस्तित्व का द्योतक यह झंडा।
जन गण मन अधिनायक झंडा, फहरे सदा तिरंगा।।
झंडा ऊँचा रहे सदा ही अनवरत मिले सम्मान्।।
हम भारत के जन जन हेतु यह गणतन्त्र महान्।।

केसरिया बल अध्यात्म बोध है, सादा सत् पथ गामी।
हरा उर्वरा शक्ति भारत की, चक्र विकास अनुगामी।।
इस झंडे को लेकर आगे बढ़ते सदा रहेंगे।
कला, ज्ञान, विज्ञान विश्व को बोध सर्वदा देंगे।।
योग और गार्हस्थ्य धर्म का,गीता का है ज्ञान।
हम भारत के.............................महान्।।

तोड़ गुलामी की कारा को, देकर अपनी जान।
हमें छोड़ कर गये वतन से, दे साम्राज्य महान्।।
नमन उन्हें, शत कोटि नमन, हे पूर्वज पूज्य महान्।
आज उन्हीं के बल पर भारत है स्वतंत्र अविराम।
देश भक्त को नमन हृदय से, जिनका है बलिदान।
हम भारत के.................... गणतंत्र महान्।।

सोने की चिड़ियाँ भारत,पर शत्रु हैं घात लगाये।
फिर भी हम उनको समझाते सुपथ सुराह बताते।।
विश्व गुरु हम छल बल से काम नहीं लेते हैं।
मूर्ख और लाचार समझ पर झाँसा वे देते हैं।।
नहीं जानते शक्ति हमारी ,नहीं ज्ञान-विज्ञान।
हम भारत के..........................महान्।।

हमने सबसे पहले जग को जीने का मार्ग बताया।
समझ बूझ अध्यात्म ज्ञान का अनुपम बोध कराया।।
हमनें सबसे पहले जग को सभ्यता संस्कृति सिखाया।
भाषा बोध कराया जग को दर्शन उन्हें सिखाया।।
जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष का मिला जहाँ सद्ज्ञान।
हम भारत के..............................महान्।।

कला,ज्ञान,विज्ञान,गणित का मौलिक पाठ पढ़ाया।
लिखना-पढ़ना,खेल-कूद का मौलिक भेद बताया।।
मानवता का पाठ आज वे हमको पढ़ा रहे हैं।
धीरे-धीरे कदम हमारी ओर वे बढ़ा रहे हैं।।
हिन्द विरोधी पतितों को भी मिला यहाँ सम्मान।
हम भारत के.............................महान्।।

हमें एक जुट देख,आज वे ईर्ष्या से जलते हैं।
देख विकास बहुमुखी हमारी जलभुनकर रहते हैं।।
हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई हम सब भारत भाई।
करें आज संकल्प पुनः हममें हो नहीं जुदाई।।
हम अखण्डता और एकता का रखते हैं ध्यान।
हम भारत के..............................महान्।।

हम अपनी सभ्यता-संस्कृति में रहकर एक रहेंगे।
अपनी राष्ट्र-पताका हेतु सर्वस्व त्याग हम देंगें।।
अलग-अलग है धर्म हमारा,किन्तु राष्ट्र भारत है।
राष्ट्र-धर्म है एक विश्व को क्या यह बोध नहीं है?
सत्य अहिंसा स्नेह ज्योति है भारत की पहचान।
हम भारत के................................. महान्।।

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज" , पचम्बा , बेगूसराय।


गुरुवार, 22 सितंबर 2022

लेते हो अवतार :-

लेते हो अवतार,
जगत् का करने को उद्धार,
परन्तु तुम कायर-से डरते हो ।
लेते हो संकल्प,
प्राणी की पीड़ा को हरने का,
पर, मोह बन्धन से क्यों डरते हो ?

वचनबद्धता भूल यहाँ क्या करने तुम आये हो ?
सचमुच पशु से भी जीवन की कला न सीख  पाये हो ।
अर्जुन, कृष्ण, एकलव्य, युधिष्ठिर कुछ भी तो तुम होते।
राम,विभीषण ,रामानुज, ईसा,शंकर से होते ।
भ्रातृहरि  या कालिदास-से जग का अनुभव लेते।
जरथुस्त्र, जड़ भरत, कन्फ्युशियस-सा दर्शन देते।
भीष्म प्रतिज्ञा ,गाँधी का सत्याग्रह करते ।
मीरा,तुलसी,सूर, कवीर,कपिल, कणाद् कहाते।
सिंह शावक संग क्रीड़ा, भरत सी भक्ति करते।
रोक पिता के अश्व माता का गौरव बनते ।
लव-कुश का आदर्श,प्रह्लाद,ध्रुव भक्ति करते ।
पत्रकार नारद से होते सच को तुम सच कहते।
नीति विदुर,कौटिल्य-चाणक्य ,अटल ,मोदी सा तू बनते।
अंगद,हनुमान तुममें हैं, कण-कण में हरि बसते।

लेते हो अवतार..........।
कुल मर्यादा भूल,धर्म से मुख तुम मोड़ रहे हो ।
भूल सभी कर्त्तव्य,अधिकार के पीछे पड़े हुए हो।

लेते हो अवतार........।
(क्रमशः)


चाँद ! तुम्हारी यादों में

चाँद ! तुम्हारी यादों में,
हर रात बीत यों जाती है ।
आँखें तेरा रुप सलोना,
देख नहीं थक पाती हैं ।।

करते हो आँख मिचौनी तुम,
बदरी संग चाँदनी रातों में ।
अपनी शीतल किरणों से,
तुम घायल कर जाती हो ।।

हे आशुतोष सिरमौर !
दूज के चाँद ! कहाँ छिप जाते हो ?
मेरे अन्तस् की पीड़ा को,
क्यों नहीं समझ तुम पाते हो ?

अपने चकोर को चाँद सुनो,
क्यों इतना अधिक सताते हो ?
हैं बरस रहीं आँखें कब से,
मेरे दिल की तुम धड़कन हो ।।

रातें अंधियारी हैं गहरी,
घनघोर अंधेरा छाया है ।
जुगनू ने साहस करके,
तम को दूर भगाया है ।।

चाँद ! चाँदनी रातों की,
कर रहा चकोर प्रतीक्षा है ।
तुम मिलो या नहीं मुझसे,
यह तो बस तेरी इच्छा है ।।

प्रिय ! तेरे हित में ही,
हित मेरा दिखलाता है ।
चाँद ! तेरा चकोर यह,
तुझमें ही मिल जाता है ।।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
पचम्बा, बेगूसराय ।


मानसरोवर :-

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017मानसरोवर...................।

मानसरोवर बीच में हंसा कितना सुन्दर सोहै।का कहुँ ? सखि ! मेरो चितवन को, आजु पुनि पुनि मोहै।
हंसा तैरे मानसरोवर , जल चंचलता छोडैमानसरोवर.......................................................।
आठ चलै, पुनि चार चलै, द्वादश, षोडश होई निकसै।
का कहूँ ? पर, एक बीस जित तित मग होई बिकसै।मानसरोवर................................................।
चलै समीर, अग्नि, धरा, जल या नभ में ठहरावै।
श्याम, अरुण, पीताभ, श्वेत औ नील गगन दिखलावै।मानसरोवर.................................................।
वायु वृत्त, तेज त्रिभुजवत्, धरा चतुर्भुज भावै।आपु बूँद सम फैले नीचे, नभ अण्डाकृति सा लागै।मानसरोवर....................................................।
अम्ल, तीक्ष्ण, मधु, धात्री, कटुवत् स्वाद तत्व बतावै।
नाभि, स्कन्ध, जानु, पद, मस्तक पर क्रमश: तत्व विराजै।मानसरोवर......................................................।
तिर्यक, ऊपर, समतल, नीचे, द्विस्वर व्योम बतावै।
यंरंलंवंहं बीज ध्यान परम सुख निश्चय मार्ग दिखावै।मानसरोवर.......................................................।
उच्चाटन मारण शान्ति कर स्तम्भन मार्ग बतावै।
मध्यम् मार्ग व्योम कर निश्चय,कर्म निषेध बतावै।मानसरोवर.......................................................।
अन्तक, क्रूर, चर, स्थिर योगादि तत्व सुख बाँटे।
हानि-हानि औ लाभ-लाभ का फल, निष्फल न कहावै।मानसरोवर.........................................................।
ईड़ा चन्द्र सौम्य सोम बामांगी, निशि दिन रास रचावै।
कठिन क्रूर संघर्ष शौर्य रवि दिन पति पिंगल कृष्ण कहावै।मानसरोवर.................................................।
ईंगला-पिंगला साथ सुषुम्ना ईस्वर ध्यान लगावै।
ऐसौ करै सदा सुख पावै, बर्ह्मलीन होई जावै।मानसरोवर........................................................।
दशरथ निज का मोह छाड़ि जब राम का ध्यान लगावै।
का कहुँ ? सखि ! हंसा तेहि क्षण में सो अहं सो मिलि जावै।मानसरोवर......................................................।

:- प्रो०अवधेश कुमार 'शैलज',पचम्बा,बेगूसराय।


नींद कहाँ तू चली गई

नींद कहाँ तू चली गई है ?
हर पल बैचेनी बढ़ी हुई है।
बाट जोहते, आश लगाये,
छली गई, मैं पड़ी हुई हूँ।।
नींद कहाँ....... हूँ।


भोली भाली प्रिया सौम्या :-

भोली-भाली प्रिया सौम्या , जीवन की हरियाली है।
राज-श्री, शुभदा, सुखदा; सौभाग्य बढ़ाने वाली है।।

नयनों की काजल हितकारी, राधा श्याम दुलारी है। 
नर मुनि सुरासुर पूज्या, रमणी कन्या सुखकारी है।।

हृदवासिनी धनदा गृहिणी, कामिनी जया कल्याणी है।
प्रेयसी प्रिया पावन दिव्या, अबला प्रबला गृहलक्ष्मी है।।

दारा, तनुजा, भगिनी, देवी, बधू, कन्या रुप अनेकों नारी हैं।
विटप वल्लरी पुष्पलता प्रिया, हिय हार प्रियम्वदा प्यारी हैं।।

धारिणी पुंबीज सन्त्तति दाता, मातृत्व वात्सल्य प्रदायिनी है।।
दिव्यांगना शैलज हितकारी, सुर सरि गंगा जग पाविनी है।

भोली-भाली प्रिया सौम्या, जीवन की हरियाली है।
राज श्री शुभदा सुखदा, सौभाग्य बढ़ाने वाली है।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
पचम्बा, बेगूसराय, बिहार, भारत।


'प्रज्ञा-सूक्तं' :-

'प्रज्ञा-सूक्तं'

-प्रो०अवधेश कुमार 'शैलज',पचम्बा, बेगूसराय ।

ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।। १।।
अर्थात्
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं ।

प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।२।।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण होता है ।

जीव देहे तिष्ठति ।।३।।
जीव देह में रहता है ।

देहात काल ज्ञानं भवति ।।४।।
देह से समय का ज्ञान होता है ।

देहमेव देशोच्चयते ।।५।।
देह ही देश कहलाता है ।

देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावं अज्ञानस्य कारणं भवति ।।६।।
देश एवं काल के सम्यक् (ठीक-ठीक एवं पूरा-पूरा) ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण होता है ।

अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।७।।
अज्ञान् से भ्रम ( वस्तु/व्यक्ति/स्थान/घटना की उपस्थिति में भी सामान्य लोगों की दृष्टि में उसका सही ज्ञान नहीं होना)  पैदा/ उत्पादित होता है ।

भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।८।।
भ्रम (Illusion) से विभ्रम (Hallucination) पैदा या उत्पन्न होता है ।

विभ्रमात् पतनं भवति ।।९।।
विभ्रम (विशेष भ्रम अर्थात् व्यक्ति,वस्तु या घटना के अभाव में उनका बोध या ज्ञान होना) से पतन होता है ।

पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।१०।।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाती है ।

प्रवृत्ति: भौतिकी सुखं ददाति ।।११।।
प्रवृत्ति भौतकी सुख प्रदान करता है ।

भौतिकी सुखं दु:खोत्पादयति ।।१२।।
भौतिकी सुख दु:ख उत्पन्न करती है ।

सुखदु:खाभात् निवृत्ति: प्रकटति ।। १३ ।।
सुख दुःख के अभाव से निवृत्ति ( संसार से मुक्त होने की प्रवृत्ति ) प्रकट होती है ।

निवृत्ति: मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।१४।।
निवृत्ति मार्ग ही संन्यास कहलाता है ।

संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।। १५।।
संन्यास ही परमात्म का पथ या मार्ग है ।

संन्यासी आत्मज्ञ: भवति ।। १६।।
संन्यासी आत्मज्ञानी होते हैं ।

आत्मज्ञ: ब्रह्मविद् भवति ।।१७।।
आत्मज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी होते हैं ।.

जीव ब्रह्म योग समाधिरुच्चयते ।।१८।।
जीव और ब्रह्म का योग ही वास्तव में समाधि कहलाता है ।

नोट :- ज्ञातव्य है कि थियोसोफिकल सोसायटी की अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा डॉ०राधा वर्नीयर को जब मेरी इस रचना की जानकारी हुई तो उन्होंने इस रचना का शीर्षक 'सत्य की ओर' दिया साथ ही इस रचना पर अपनी सम्पदकीय टिप्पणी देते हुए थियोसोफिकल सोसायटी की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका 'अध्यात्म ज्योति' में मुझ अवधेश कुमार 'शैलज' के नाम से प्रकाशित करवाया, जिसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ ।


घोड़ा गाड़ी :-

Awadhesh kumar 'Shailaj' , Pachamba, Begusarai.

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017
'घोड़ा-गाड़ी' :-
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी,
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
सोचो मत, आई रथ की बारी
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
टक-टक, टिक-टिक,
टक-टक,टिक-टिक,
चली जा रही घोड़ा गाड़ी,
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
कच्ची-पक्की ऊवड़-खावड़
गली-कूँची, मैदान-सड़क पर
डग-मग, डग-मग हिंडोले-से ,
पैसेन्जर को झुमा-झुमा कर,
चली जा रही घोड़ा-गाड़ी,
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
टक-टक, टिक-टिक,
टक-टक, टिक-टिक,
चली आ रही घोड़ा-गाड़ी
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
आ जा भैया, बाबा आ जा,
मैया और बहिनियाँ आ जा,
नानी,दादी,वीवी आ जा,
एक सवारी खाली आ जा,
चाचा और भतीजा आ जा,
बकरी वाली दीदी आ जा,
टोकरी वाली चाची हट जा,
मामू आगे में तू डट जा,
बौआ थोड़ा और ठहर जा,
दादा साहेब को जाने दें,
नेता जी को भी आने दे,
एक पसिंजर और है खाली
साले कर पीछे रखवाली
घोड़ा-गाड़ी चल मतवाली,
एक्सप्रेस की मोशन वाली
घोड़ा-गाड़ी चल मतवाली
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
चना चबाते सईस जा रहा,
चाबुक खा-खा घोड़ा,
यहाँ ठहर , बहाँँ चल बाबू,
चलना है बस थोड़ा।
घोड़ा गाड़ी खींच रहा है,
आगे जो कुछ दीख रहा है।
घोड़ा गाड़ी खींच रहा है।
जनता पिसा रही वेचारी,
इसकी भी है हद लाचारी,
एक-दूसरे के कंधे पर -
लदी हुई है जनता सारी।
घोड़ा-गाड़ी एक सवारी।
यहीं दीखती दुनियाँ दारी,
ढींग मारते गप्पी भैया,
बहस कर रही चाची,
रजनीति करते नेताजी,
दादा करते -रंगदारी।
इसी बीच में अटका घोड़ा,
लगा सभी को झटका,
कोई गिरा, खड़ा हो भागा,
कोई तांगे से लटका।
भूखा-प्यासा, जर्जर घोड़ा,
थककर रूका वेचारा,
किन्तु, वेरहम ने उसका खाल उघाड़ा।
लोगों ने कितना समझाया,
सईस कहाँ से माने ?
मेरा घोड़ा, मर्जी मेरी,
चले मुझे- समझाने।
फेरा हाथ पीठ पर उसके,
बाबू मेरे प्यारे-भैया,
मेरे राज दुलारे,
चलो-चलो शाबास बहादुर,
मोटर को आज पछाड़ें।
सुनकर बोली चिकनी-चुपड़ी,
घोड़ा सरपट दौड़ा।
रूका नहीं वह कहीं मार्ग में,
लेकर गाड़ी घोड़ा।
चना चबाते सईस जा रहा,
चाबुक खा-खा घोड़ा।
घोर कष्ट में भी घोड़े ने,
कभी नहीं मुँह मोड़ा।
तांगेवाला दिया ईशारा,
रोका औ पुचकारा,
कर वसूलने लगा सईस,
सुविधा को किया किनारा।
जैसे-तैसे लादा सबको,
जन-जन को समझाया,
जिसने कष्ट किया जीवन में,
वही लक्ष्य को पाया।
देखो, घोड़ा खींच रहा है,
घोड़ा गाड़ी खींच रहा है,
आगे जो कुछ दीख रहा है,
घोड़ा गाड़ी खींच रहा है।
:- प्रो० अवधेश कुमार'शैलज',पचम्बा,बेगूसराय।
Awadhesh Kumar पर 9:03 am


शुभ हो तुम्हारा :-

यादों में तुम्हारे दिन रात बीतते हैं।
तू हो कहाँ? हर रोज खोजते हैं ।।
वह कौन सा समय है जो आप छूटते हैं।
कैसे बताऊँ जग को? जो आप रूठते हैं।।
जाता जहाँ जहाँ में, बस आप दीखते हैं।
हो रूप जो जहाँ भी,हर ओर दीखते हैं।।
बन-बाग, पर्वतों में; नद, झील, निर्झरों में।
शहर गाँव खेतों में,मिलते हो झाड़ियों में ।।
कड़ी धूप दिन की या रात चाँदनी हो।
मिलोगे तुम मुझको आखिर विवश हो।।
भटकता गमों में, यादों में ढ़ूँढ़ता हूँ।
अन्तर्जगत में तुमको दिनरात देखता हूँ।।
जंगल में बन पशुओं का शोर हो रहा है।
देखो तो सिंह गर्जन घनघोर हो रहा है।।    
चिग्घाड़ते हैं हाथी,मद मस्त होकर बन में।
लिपटे भुजंग चन्दन बिष छोड़ सुधा बन में।।
ऋषि-मुनि अप्सरा के संग हैं कहीं मगन होकर।
लिपटी तरु लतायें सब लोक लाज तज कर।।
कुसुमाकर आखेट में हैं निज पुष्प वाण लेकर।
सखा बसन्त संग में हैं सर्वस्व निज का देकर।।
पशुपति कृपा से रति काम रीझते हैं।
होकर अनंग जग में चहुँ ओर दीखते हैं।
फिकर बस हमारी तुमको नहीं है।
मिलने की कोई वेकरारी नहीं है।।
स्नेह से प्रेम पादप को दिल में हूँ रोपा।
दिल एक था जिसे मैंने तुझको है सौपा।
मेरे तुम्हीं एक, पर हजारों हैं तेरे।
लेकिन हमारे तो तू ही हो मेरे।।
किसे मैं जगत में कथा यह सुनाऊँ।
तुम्हें कैसे अपनी व्यथा मैं सुनाऊँ।।
सुबह-शाम, दिन-रात शुभ हो तुम्हारा।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


सरस्वती वंदना :- ऐंकारी सृष्टि कारिणी

सरस्वती वंदना:

ऊँकारेश्वरी त्र्यम्बिके माता, ऐंकारी सृष्टि कारिणी। 

देवी सरस्वती, शारदा, शुभदा, सौम्या, हंसवाहिनी।।  श्वेताम्बरा, श्वेत वसना, श्रुति स्मृति ज्ञान प्रदायिनी।

श्वेत पद्मासना, आयु सुखदायिनी।

ॐ ऐंकारी सृष्टि कारिणी, देवी सरस्वती, ज्ञानदायिनी। बुद्धि-बोध प्रदा, श्वेताम शारदा, शुभदा, हंसवाहिनी।। 

वीणा पाणि, वीणावादिनी, स्वर संगीत ताल गति दायिनी।

नीर क्षीर न्याय प्रदा, गुणाढ़्या, जगदीश्वरी वरदायिनी।

विद्या दात्री, दिव्या, सौम्या, सर्व सौभाग्य प्रदायिनी।। 

वीणावादिनी, विद्या दात्री, सर्व सौभाग्य प्रदायिनी।
सरस्वती शुभदा सौम्या, जगदीश्वरी वरदायिनी।

ऊँकारेश्वरी त्र्यम्बिके माता, त्रिविध ताप विनाशिनी।
श्वेत पद्मासना, श्वेत वसना, आरोग्य आयु सुखदायिनी।

ऋद्घिसिद्घिप्रदा, निधिदा, नित्या, यन्त्र मन्त्र तन्त्रेश्वरी।
ज्योतिप्रदा, धनदा, यशदा, सुरेश्वरी, जगदीश्वरी।

जड़ शैलज बोधदा, प्रज्ञा, अज्ञान,अधम, तम नाशिनी।
स्रष्टा, पालक, समाहर्ता, भुक्ति मुक्ति बोध प्रदायिनी।

सर्वं त्वेष त्वदीयं माँ, नमस्तुभ्यं भारती।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


होली :-

होली का यह पर्व है, खुशियों का त्यौहार ।
बुरा न इसमें मानिये, इसमें मिलता प्यार ।।
होलिका दहन होते ही, छा जाता उल्लास।
भक्ति प्रेम की शक्ति का, है पुनीत इतिहास।।
धूलि वन्दन होत है, रंग अबीर गुलाल।
प्रेम रंग में रंग सभी, हो जाते खुशहाल ।।
विपदा में हर भक्त के, हरि सदा ही साथ ।
नारायण हरदम रहे, भक्त प्रह्लाद के साथ।।
हरि नृसिंह अवतार में, प्रकटे खम्भा फाड़।
प्रभु ने निज वरदान को किया सत्य साकार।।
लिटा सायं निज जाँघ पर, नख से छाती फाड़।
हिरण्यकश्यपु का प्रभु, किये तुरत उद्धार।।
आज उन्हीं की याद में, यह होली त्यौहार।
सबसे कीजिए दोस्ती, सबको करिये प्यार।
पूर्वाग्रह को त्याग कर, रचिये नूतन संसार ।
प्रेमभाव सहयोग का, दिल मन में हो संचार।।
शैलज गलती मानिये, करिये भूल सुधार।
कर्म धर्म सुधारिये, होगा भव बेड़ा पार।।
सत्य सनातन संस्कृति, विधि विवेक विचार।
अहंकार मद मुक्त हो, करें सुहृद व्यवहार।।
होली पावन पर्व यह मिलन महोत्सव काल।
बन्धु गुरु प्रभु पूजिये, हिन्दू हृदय विशाल।।

प्रो० अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय ।


कर्म एवं प्रारब्ध :-

कर्म एवं प्रारब्ध :-

वह जो अनुकूल नहीं हो,
तन-मन-समाज के हित में ।
असहज स्थिति दायक हो,
हर पल जीवन , चिंतन में ।।
यह जीव जगत निर्मित हो,
या मूल प्रकृति प्रेरित हो ।
मानव की भूल सहज या,
अज्ञान-अहम् प्रेरित हो ।।
हर पल घटते जीवन की,
अर्जित संचित कर्म लड़ी में ।
प्रारब्ध भोग करते हैं,
जीवन भर प्रत्येक घड़ी में ।।
आपदा नियन्त्रण हेतु,
कर हम आत्मनियंत्रण ।
मिल जायें एक दूजे में,
सुन्दर है यही प्रबंधन।।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय


चुनाव नहीं, खेल है :-

चुनाव नहीं खेल है

दनुज मानव सोच से जड़ जीव सुर नर त्रस्त हैं।
कलि प्रभाव ग्रसित मोहित सभी निज में व्यस्त हैं।।
हर जगह हर ओर कुंठा अज्ञान विधर्म विकास है।
तिलस्म फैला हर जगह, हर जगह मकड़जाल है।
खोजता हूँ आदमी, लालटेन बिना तेल है।
दीखता है पथ नहीं, चुनाव नहीं खेल है।।
नियम क्यू का है बना, लेकिन रेलम रेल है।
कहने को है विकास, पर विनाश खेल है।।
उतरते रंगत महल के, झोपड़ी उजाड़ है।
दिन में तारे दीखते, हथौड़े की पड़ी मार है।।
गेहूँ की फसल पक गई, हसुआ में नहीं धार हैं।
कीचड़ में कमल दिख रहा, जनता पहरेदार है ?
तीर दिल में चुभ रहा, दवा सब बेकार हैं।
शैलज हाथ मल रहा, भविष्य अन्धकार है।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
(कवि जी),
पचम्बा, बेगूसराय, बिहार।
   

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प्रार्थना :-

प्रार्थना

सकल विश्व में व्याप्त प्रभु,
हम सब की लाज बचाओ।
अन्धकार, अज्ञान हरो हर,
शक्ति सद्ज्ञान बढ़ाओ।।
प्रेम बढ़े, दिल दु:खे नहीं,
व्यवहार सरल सिखलाओ।।
सकल सुमंगल छाये जग में,
तन मन स्वस्थ बनाओ।।
सकल विश्व................।।

(क्रमशः)

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार " शैलज" उर्फ "कवि जी",
पचम्बा, बेगूसराय।


सुमन :-


सुमन :-

पंकज अथाह जल में भी, निज मौलिकता में रहता।

हों उदधि, सरोवर कोई, निर्मल, सुरभित, अति सुन्दर। 

नीरज, जलज, कमल कीच संग

हों कीच परित्यक्त मानव

नर पशु अधम के पथ पर, आरूढ़ कभी न होता।।

शौचाशौच विषय की, परवाह सुमन न करता।

समदर्शी गुण के कारण, देवो के सिर पर चढ़ता।।

वय कली, मुकुल कुछ भी हो, मधु प्रेम हृदय में रहता।

मानव या देव-दनुज हों, सम्मानित सबको करता।।

छल-कपट हृदय या मन में, उसको न कभी होता है।

प्रिय मिलन पर्व संगम में, मध्यस्थ मुदित होता है।।

शैलज, कपास, पंकज या, गूलर, गुलाब, गुलमोहर। 

है प्रकृति फूल सुमन की,  सुख-दुःख में भाव मनोहर।। 


डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, 

पचम्बा, बेगूसराय।


द्वन्द्व की दीवार तोड़ें :-

द्वन्द्व की दीवार तोड़ें

सम्यक् भाव विचार हैं जिनके, वंदनीय वे जन हैं।
काम, क्रोध, मद, लोभ रहित, लोग सभी सज्जन हैं।।
मातु-पिता से बढ़कर केवल सदगुरु एक होते हैं।
मित्र, सहायक, शत्रु से भी, हम सीख सदा लेते हैं।।
अच्छे सभी नहीं हैं जग में, हर सुन्दर चेहरे वाले।
सावधान "शैलज" उनसे भी जो लगते हैं रखवाले।।
पर, सब में अपनापन,सुन्दरता, सद्गुण यदि देख सकते हो।
शत्रु मित्र बनेंगे, प्रभु कृपा अहैतुकी अनुभव कर सकते हो।
जिसने तेरी रचना की है और जगत् में भेजा।
कर्म करो नित उन्हें याद कर, बदलेगी हर रेखा।।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का चक्र अहर्निश चलता।
देश, काल औ पात्र बोध से अनुपम फल है मिलता।।
अपने पर विश्वास और श्रद्धा हो हर कण-कण में।
आत्मनियंत्रण, जीवन का सदुपयोग भाव हर क्षण में।।
भावुकता से नहीं चलेगी, जीवन की यह गाड़ी।
पर कठोरता सह न सकेगी, सपने की लाचारी।।
विटप-वेल, रति-काम महोत्सव, योग-भोग सुख दायी।
धर्म-कर्म निज निरत चराचर, सबाल वृद्ध युवा नर-नारी।।
सुख-दुःख भोग, जगत् का मेला, आवागमन यहाँ अकेले।
दुर्गम नहीं, सुगम पथ जग का, बस खेल समझ कर खेलें।।
सुन्दर सुभग अनुपम बसन्त संग प्राकृतिक छटा सुहावन।
प्रकृति पुरुषात्मकम् जगत् श्री हरि बोध हृदय मन भावन।।
जीवन पथ में हम सफर के संग दीवार द्वन्द्व की तोड़ें।
अनुकरणीय आदर्श जीवन की सदा छाप हम छोड़ें।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


तू चन्दा

तू चन्दा, मैं तेरा चकोर,
हूँ तड़प रहा, हो गया भोर।
तेरे किरणों से घायल हो
आ रहा घटा प्राचीर तोड़ ।
तू सारे जग में करते इंजोर,
निज को रवि हेतु सहज छोड़,
तू चन्दा, मैं तेरा चकोर।

चन्दा अंधियारी रातों में,
घुटता रहता तेरी यादों में।
परवाह कहाँ तुम्हें मेरी ?
तू बसते हो मेरी आँखों में।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


तू चन्दा :-

तू चन्दा, मैं तेरा चकोर,
हूँ तड़प रहा, हो गया भोर।
तेरे किरणों से घायल हो
आ रहा घटा प्राचीर तोड़ ।
तू सारे जग में करते इंजोर,
निज को रवि हेतु सहज छोड़,
तू चन्दा, मैं तेरा चकोर।

चन्दा अंधियारी रातों में,
घुटता रहता तेरी यादों में।
परवाह कहाँ तुम्हें मेरी ?
तू बसते हो मेरी आँखों में।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


ख्याल में

ख्याल में किसके ? क्या तुम सोचते हो ?
और अपने आप से क्या तुम बोलते हो ?
ढ़ूढ़ते किसको ? किसे पहचानते हो ?
पूछते किसका पता ? क्या जानते हो ?

भीड़ से एकान्त में आकर अकेले,
दीखते हो शान्त, पर क्या झेलते हो ?
किन गमों की भीड़ में खोये हुए हो ?
खोये हुए से क्या पता तू पूछते हो ?

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


सरस्वती वंदना :-

  सरस्वती स्तोत्र

ऊँ सरस्वती महाभद्रा महामाया वरप्रदा।
पद्याक्षी पद्यनिलया पद्ममासना श्रीप्रदा।।
माला पुस्तक वीणापाणि शारदा श्रीदा शुभा।
विमला विश्वा वाग्देवी वैखरी वाणी वरप्रदा।।
परापरा मध्यमा पश्यन्ति मन्त्र शक्ति ज्ञानदा।
शिवानुजा कामरूपा रमा गायत्री प्रज्ञाप्रदा।।
महाभागा महाभोगा महाशक्ति महाभुजा।
महोत्साहा महाविद्या महादेवी महाप्रभा।।
सर्वज्ञानप्रदा नित्या ऐंकारी स्वरात्मिका।
सर्वज्ञा त्रिकालज्ञा त्र्यंम्बिके त्रिगुणात्मिका।।
भारती भव्या दिव्या अंबिका स्वरदायिका।
सर्वदेव स्तुता सौम्या सर्व सौभाग्य वरप्रदा।।
वीणावादिनी श्वेतवसना पद्ममासना हंसवाहना।
श्वेतवसना नाद स्रष्टा कला कल्याण सुखप्रदा।।
गीत वाद्य संगीत जननी गति राग ताल लय तारिका।
प्रकृति पुरुष मन मोद कारिणी चैतन्य ऊर्जा दायिका।।
प्रज्ञा ज्योति प्रदा अहर्निश नियति कर्म प्रदर्शिका।
वेद शास्त्र पुराण ज्योतिष सर्व शास्त्र प्रकाशिका।।
ब्राह्मी वैष्णवी शाक्त शक्ति अर्द्धनारीश्वरी शुभा।
जगदीश्वरी मातृशक्ति सानन्द भोग सौभाग्यदा।।
करुणामृत जीवन दात्री, संजीवनी विद्या प्रदा।
अखिलेश्वरी जगन्माता माया जगन्मोहिनी।
जगतगुरु जगतारिणी ताप त्रय विनाशिनी।।
ऊँ गल ग्रह नाशिनी, गहन तथ्य प्रकाशिनी।।
गन्धर्व वेद घनाक्षरी प्रिया, गांधार स्वरानुमोदिनी।।
अज जाया, जुगुप्सा अज्ञान विनाशिनी।
सर्वं त्वेष त्वदीयं माँ, नमस्तुभ्यं भारती।।




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रिमझिम रिमझिम बरसा बरसे :-

रिमझिम-रिमझिम बर्षा बरसे, भींगे राधा रानी।
सोना बरसे, चाँदी बरसे, बाल कृष्ण रुचि जानी।।

कुसुमाकर अनंग रति मादक, वेल विटप लिपटानी।
बाल कृष्ण मन मोद बढ़ावत, करत बसन्त अगवानी।।

प्रिय हरि दर्शन की आकाँक्षा, प्रिया हृदय में ठानी।
बूलत कृष्ण गोपाल श्याम घन, नाचत मोर सयानी।।

मुरलीधरन अधर रस भींजत, व्रजवाला अकुलानी।
हरि चरण दरश को आकुल, गोपद पद अनुगामी।।

सृष्टि कामना हेतु विधि सेवत, पालत हरि विधि जानी।
हरत शोक, रोग, त्रिविध दुख, स्वयंभू हर अन्तर्यामी।।

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज", पचम्बा, बेगूसराय।


तुम हृदय में

तुम हृदय में बस चुके हो, प्रीति जानो या न जानो ।
वेदना के गीत हैं ये,मीत मानो या न मानो ।।
तुम हृदय में बस चुके हो.....।
बोध मुझको कुछ नहीं है ,एक तुम ही याद आते ।
याद अब भी वही है, प्रथम मिलन की मधुर बातें ।
तुम हृदय में बस चुके हो......।

रूप तेरा है सलोना, रंग तेरा है सलोना ।
सामने तेरे नहीं, अनमोल चाँदी और सोना ।।
मौन हो कर साधना तुम कर रहे दिन रात प्रतिपल ।
और उसके ताप से हूँ विकल शैलज नित्य अविचल ।।
समय स्थिर हो गया है,
देखकर यह धैर्य तेरा ।
क्या कहूँ?किस हाल में हूँ? कौन जाने मर्म मेरा?
तुम हृदय में......।
(क्रमशः)
अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


काले-गोरों की गाथा:-

काले-गोरों की गाथा....

पहले टुकड़े करो देश के, फिर तो जश्न मनायेंगे।
कुश्ती के लिए कश्मीर में अखाड़ा एक बनायेंगे।।
सदियों से चूसा है इनको, गन्ने सा सदा चवायेंगे।
सोने की चिड़िया है भारत, भूल कभी न  पायेंगे।।
चैन नहीं मिल सकता हमको भारत के छिन जाने से ।
दिल कचोटता अब भी मेरा, काले द्वारा भगाने से।।
भाषा-संस्कृति को भेद कर मैंने भारत पर राज जमाया था।
ईस्ट इंडिया कम्पनी से ही मैंने वहाँ व्यापार बढ़ाया था।।
विश्व विजेता सिकंदर क्षण भर जहाँ नहीं टिक पाया था।
फूट डाल कर टिका वहाँ पर जग को यह दिखलाया था।।
दीन ईलाही पाठ पढ़ा कर मुस्लिम ने जगह बनाया था।
करके उन्हें पराजित हमने अपना राज चलाया था ।।
धर्म,कला, विज्ञान,नीति का है अक्षय भंडार जहाँ।।
विश्व गुरु भारत ही है, लेते हैं हरि अवतार जहाँ।।

( क्रमशः )

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।


देवांगना हूँ

शैलजा शैलज तुम्हारी प्रतिलिपि हूँ,
वास्तव में मैं तुम्हारी ही कृति हूँ ।
एक छाया हूँ तुम्हारी, अंगना हूँ,
द्वन्द तन मन का नहीं दिव्यांगना हूँ।।

उतरकर मैं स्वर्ग से आयी धरा पर,
प्रेम का संदेश लेकर दिव्य निश्छल।
भाव की भूखी पुरुष तेरी प्रकृति मैं,
वास करती हृदय में देवांगना हूँ।।

अर्धनारीश्वर प्रकृति है पुरुष तेरा,
है सुशोभित हो रहा दिगन्त सारा।
अन्तरंगता का अखिल संदेश लेकर,
बाट कब से जोहती, दिव्यांगना हूँ।।

एक है विश्वास केवल प्रेम तेरा,
बन गया सम्बल अंधेरे रास्ते में।
क्या अचानक हो गया है आज मुझको?
देखती हूँ तुम्हें ही मैं हर किसी में।।

स्वयं से अनजान नारी या कि नर हूँ,
परमात्म-पथ पर बढ़ रही मैं बेखबर हूँ।
क्या पता, कब से विचरती हूँ गगन में ?
प्रेम-मग में मगन बस एक आत्मा हूँ।।

रूप मेरे हैं अनकों, रंग मेरे हैं अनेकों,
जो चराचर में, प्रकृति में,वे सभी हैं अंग मेरे।
मधुर मुरली की सुनहरी प्रेम धुन में ध्यान मेरी,
हरि चरण रज को विकल अलि ! देवांगना हूँ।।

(क्रमशः)

प्रो० अवधेश कुमार "शैलज", पचम्बा, बेगूसराय।


जीवन-दर्शन :_—

जीवन-दर्शन :-

आँखों में पानी रहने पर दिल में तस्वीर बनी रहती है।
सुख्वाबों की निगरानी से तकदीर सहज बनती है।
रिश्ते प्रेम आपस के आसक्ति रहित अनुपम हैं।
सच्चे दिल के सब रिश्ते नि:स्वार्थ कर्म होते हैं।
जीवन अनन्त यात्रा है, प्रभु प्रेरित जड़ चेतन का।
सिद्धांत कार्य-कारण का, है खेल प्रकृति पुरुष का।
संकल्प विकल्प मनुज का, जड़ चेतन योग जगत् का।
विज्ञान ज्ञान जगत् का, कलि काम क्रोध अन्तर का।
पर निज का लोभ त्रिविध दु:ख खोलता द्वार नरक का।
ध्रुव उत्तर औ दक्षिण के मिलकर चुम्बक बनते हैं।
पारस से बढ़ लोहे में निज चुम्बकीय गुण भरते हैं।
कहते हैं लोग जगत् यह सपना, झूठा, माया है।
पर सृष्टि प्रभु की सच यह तत्वज्ञ समझ पाया है।
अन्तर्दृष्टि निरीक्षण की शक्ति सोच देता है।
पर अन्तर्निरीक्षण से वह योग युक्त होता है।
मिट जाती सारी दूरी, सब समय सिमट जाता है।
सत्रिविमीय अनन्त परमेश्वर ऊँ कार पूर्ण होते हैं।
वह परम ज्योति कण-कण में,जड़- चेतन में रहता है।
एक दूजे से हिल-मिल कर निज रूप नया रचता है।
सब साथ सदा रहते हैं, भ्रम दूर महज करना है।
बस एक तत्व है सबमें, सब में निज को लखना है।
मर्कट-शुक न्याय प्रमाणिक जग सहज मोह बन्धन है।
जड़-जीव स्वतंत्र सक्षम हैं, श्रद्धा विश्वास अटल हो।
स्व में सन्निहित जगत् हो, जग में हो निज का दर्शन।
मित्रता प्रेम समर्पण, मधुमय करता जग जीवन।
मन कर्म वचन सत संगत सौभाग्य सौख्य दायक हो।
शैलज सुचि जीवन दर्शन कवि राज सुश्री वर्धन हो।


रश्मि रथी:-

रश्मि रथी :-

सजा रही माता सपने को,
किन्तु पिता सम्बल हैं ।
दोनों के सागर मन्थन से,
निकला हर्ष कमल है ।।

तम को भेद ऊषा चूमने,
रवि संग रश्मि रथी हो।
आते नित्य वलैया लेने,
उतर स्वर्ग से नीचे ।।

पकड़ कला विज्ञान शिशु,
अपने नित कोमल कर से ।
हठ करते असीम को,
संग सदा रहने को ।।

खिले मुकुल अरुण रस पाकर,
कली- कुसुम मुसकाये
पुष्प वाण लेकर अनंग,
रति संग जगती पर छाये ।।

दे आशीष जगत् को दिनकर,
राज काज में लागे ।
प्रजा वर्ग के हित में दिनपति,
असुरों पर कोप दिखाये ।।

धरती तपी, तपे साधक गण,
कृषक, जीव अकुलाये ।
" शैलज " काल करम गति लखि,
प्रभु पद प्रीति बढ़ाये।।

मधुकर कुञ्ज कुमुद रस पा,
श्रम औ स्वेद मिटाये ।
छाया का सम्मान बढ़ा,
नारद नीरद नभ छाये।।

ऐरावत आरुढ़ शचीपति,
प्रभु को तुरत मनाये ।।
देव-दनुज,नर-नारी,मुनिगण,
सकल सुमंगल गाये ।,

प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
पचम्बा, बेगूसराय।


गुरुवार, 8 सितंबर 2022

Robin Murphy view's about Biochemic remedies based on Lotus Matria Medica.

कैल्केरिया फ्लोर:- fear of financial loss, fear of poverty.
कैल्केरिया फाॅस :- Better in summer.
कैल्केरिया सल्फर :- Anexiety in evening.
फेरम फाॅस :- Better cold application.
काली म्यूर :- White or gray coating of base of tongue.
काली फाॅस : Worse mental and physical exertion, anxiety and worry.
काली सल्फ :- Can not stand warm rooms or other forms of heat.
मैग पास :- Better by heat, warmth. Better from pressure. Better bending double. Worse from cold air. Worse night. Swelling of tongue. 
नेट्रम म्यूर:- Children late learning to talk and walk.
Worse from sunlight, heat of sum. Worse summer, seashore. Worse from strong emotions, consolation, sympathy.
नेट्रम फाॅस :- Worse acids, citrus fruits.
नेट्रम सल्फ :- Worse from damp weather, dampness of cellars. Worse from head injuries.
साईलीशिया :- Fear of needles,pins and sharp objects. Better warmth. Worse cold air drafts.
Worse suppressed perspiration, especially of feet. Worse from veccinations.