शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

तुुुम जाते हो :-

तन-मन रंगने तुम जाते हो,
जब छोड़ प्राकृतिक सिद्धान्तों को ।
लघु जीवन है, पर क्या पातें हो ?
वास्तविक आनन्द रहित चिन्तन में।

न्याय मांगने तुम जाते हो,
सद् पंच छोड़,कुलंगारों से ।
अन्यायी, संविधान विरोधी,
मूर्ख,मानवता के हत्यारों से।

करने शासन तुम जाते हो,
जन प्रतिनिधि बन सत्ता में।
जनता भी हो भूल जाते हो,
धन-पद,दल-बल की मस्ती में।

वोट डालने तुम जाते हो,
अच्छे को छोड़, मक्कारों को।
सत्ता भोगी, पक्ष-विपक्ष के,
नेता और दलालों को ।

शिक्षा-दीक्षा को तुम जाते हो,
सद्गुरु तज, गुरुघंटालों से ।
शुभद् कला-विज्ञान छोड़,
अपनाते नित अंगारों को ।

दवा कराने तुम जाते हो,
सद् वैद्य छोड़, लुटेरों से ।
काम,क्रोध,लोभ वश झेलते,
मनो-शारीरिक तापों को ।

दुआ कराने तुम जाते हो,
संतों को छोड़ असन्तों से ।
तन्त्र, मन्त्र औ यन्त्र शक्ति
को दूषित करते आचारों से ।

नौकरी पाने तुम जाते हो,
नीचों,निर्दय, कंजूसों से।
शोषक , अमीर , अभिमानी
क्यों जाने ? काश गरीबी को!

करने विवाह तुम जाते हो,
पर यदि निवाह न पाते हो ।
सहधर्म समझ न जब पाते,
दुनिया को क्या सिखलाते हो ?

सम्बन्ध बनाने तुम जाते हो,
नि:स्वार्थ, स्वार्थ जिस कारण से।
भोगते प्रभाव उसका ही तुम,
संचित, प्रारब्ध या तत्क्षण में।

साधना करने तुम जाते हो,
जब तत्व ज्ञान हो जाता है,
अष्टांग योग के साधन या
व्यवहार सरल आसानी से।

अज्ञान कुपथ तुम जाते हो,
जब सत्य बोध न होता है।
है प्रकृति-पुरुष का प्रेम प्रबल,
शाश्वत यह अनुभव होता है।

प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगुसराय ।


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