डर से मैं सुधर रहा हूँ....।
पता नहीं क्या हो गया मुझे,
अन्दर से डरा हुआ हूँ...।
अपनों के नित ताने सुनकर,
अन्दर से टूट चुका हूँ.....।
डर से मैं सुधर रहा हूँ......।
बार-बार अवलोकन करता,
अन्तस् के अन्दर जाकर .....।
लोगों के आदर्शों का कब से,
बोझ मैं उठा रहा हूँ.......।
डर से मैं सुधर रहा हूँ.....।
धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य मार्ग का,
लगा हुआ है फेरा....।
ऐसे में क्या करूँ ?
सोचने को मैं विवश हुआ हूँ...।
डर से मैं सुधर रहा हूँ....।
देश, काल औ पात्र बोध है,
प्राकृतिक धर्म सिखलाता.....।
स्वार्थी मानव की संगति का,
भोग मैं भोग रहा हूँ.....।
डर से मैं सुधर रहा हूँ.....।
( क्रमश:)
प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय ।
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