शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

सोचता हूं

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

'सोचता हूँ' :-

क्या कहा ?
बाबू जी ! भूखा हूँ .....नंगा......हूँ।
क्या कहूँ ? बाबू जी- पूरा भिखमंगा हूँ।हटो.......-रास्ते से ,नहीं तो लूँगा - डंडे से खबर.....।
बाबू जी.....!  जाड़े का मारा हूँ.....।
क्या कहूँ ? बाबू जी.........।
पूरा वेचारा हूँ।....बाबू जी.....।
हटाओ इसे......।
वक्त खाता जाता है।
व्यर्थ वकवास में मुझे यह फँसाता है......।
बाबू जी ! पाले से पड़ा पाला है ।
आप मेरा रखवाला हैं।
हटेगा नहीं यह ।
मार दो धक्का इसे ।
चढ़ा दो चक्का- सीने पर।
यह तो- बाबू जी का- साला है।
आह ! बाबू जी ! अच्छा किया आपने - छुटकारा दिला दिया  जो मुझे विपदाओं  के इस चक्कर से ।
जन्म-जन्मान्तर से ।
सोचा था, वास्ते आपके झेलूँगा -सब कुछ, पर, तुम पर न ढ़लने दूँगा-सितम ।
आह बाबू जी ! आह बाबू जी ।
अब तो चला- अहले सितम ।आह बाबू जी !आह बाबू जी !
एक चींख निकली !गुजर गयी- कार ।
बुड्ढे को ढ़कती हुई
फैली चारों तरफ- गर्द वेशुमार ।
रह गई, मेरे कानों में, गूँज एक- बाबू जी ।
सभा से लौटते वक्त......।
लम्बी सड़क पर..... कार की लाईट में ।देखा सियार को- जूझते...... उसी बुडढ़े की लाश पर।
पर, उस समय कहाँ मुझे अवकाश था ।
दूसरे ही दिन, अखवारों में पढ़ा.......वह और कोई नहीं- मेरा ही- बूढ़ा बाप था ।
सोचता हूँ.......... यह तो अनर्थ है कि मैं ही अपने बाप का हत्यारा हूँ ।
अत: क्यों न पत्रकारों को कोई नया ईशारा दूँ।

:- प्रो० अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय।


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