यादों में तुम्हारे दिन रात बीतते हैं।
तू हो कहाँ? हर रोज खोजते हैं ।।
वह कौन सा समय है जो आप छूटते हैं।
कैसे बताऊँ जग को? जो आप रूठते हैं।।
जाता जहाँ जहाँ में, बस आप दीखते हैं।
हो रूप जो जहाँ भी,हर ओर दीखते हैं।।
बन-बाग, पर्वतों में; नद, झील, निर्झरों में।
शहर गाँव खेतों में,मिलते हो झाड़ियों में ।।
कड़ी धूप दिन की या रात चाँदनी हो।
मिलोगे तुम मुझको आखिर विवश हो।।
भटकता गमों में, यादों में ढ़ूँढ़ता हूँ।
बाहर में खोजता हूँ, अन्तस् में ढ़ूँढ़ता हूँ।।
जंगल में बन पशुओं का शोर हो रहा है।
देखो तो सिंह गर्जन घनघोर हो रहा है।।
चिग्घाड़ते हैं हाथी,मद मस्त होकर बन में।
लिपटे भुजंग चन्दन बिष छोड़ सुधा बन में।।
ऋषि-मुनि अप्सरा के संग हैं कहीं मगन होकर।
लिपटी तरु लतायें सब लोक लाज तज कर।।
कुसुमाकर आखेट में हैं निज पुष्प वाण लेकर।
सखा बसन्त संग में हैं सर्वस्व निज का देकर।।
पशुपति कृपा से रति काम रीझते हैं।
होकर अनंग जग में चहुँ ओर दीखते हैं।
फिकर बस हमारी तुमको नहीं है।
मिलने की कोई वेकरारी नहीं है।।
स्नेह से प्रेम पादप को दिल में हूँ रोपा।
दिल एक था जिसे मैंने तुझको है सौंपा।
मेरे तुम्हीं एक, पर हजारों हैं तेरे।
लेकिन हमारे तो तू ही हो मेरे।।
किसे मैं जगत में कथा यह सुनाऊँ।
तुम्हें कैसे अपनी व्यथा यह सुनाऊँ।।
सुबह-शाम, दिन-रात शुभ हो तुम्हारा।
इसी सोच में हर क्षण बीतता हमारा।।
प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।
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