चिकित्सा सूक्त-1-10:-
चिकित्सा सूक्त-1.
किसी भी चिकित्सा पद्धति में और मुख्यतः होमियोपैथिक, बायोकेमिक तथा मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में रोगी केन्द्रित चिकित्सा ही निर्दोष आरोग्य प्रदान करती है, क्योंकि रोगी केन्द्रित चिकित्सा पद्धति के द्वारा चिकित्सक रोगी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व का "सम्यक् मुक्त साहचर्य विधि" से अध्ययन करता है और उसके वातावरण में उपस्थित होते आ रहे ज्ञाताज्ञात् उद्दीपनों / परिस्थितियों के प्रति उस प्राणी की अनुभूति, व्यवहार एवं समायोजन प्रक्रिया का निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रह रहित सम्यक् अवलोकन, मूल्यांकन और मार्गदर्शन करता है तथा निर्दोष आरोग्य हेतु यथसंभव आवश्यक योगदान करता है।
चिकित्सा सूक्त-2.
किसी भी चिकित्सा पद्धति (होमियोपैथिक, बायोकेमिक या किसी अन्य चिकित्सा पद्धति) के चिकित्सक को "रोग केन्द्रित चिकित्सा पद्धति" के स्थान पर "रोगी केन्द्रित चिकित्सा पद्धति" एवं साथ ही "सम्यक् मुक्त साहचर्य प्रविधि" को अपनाना चाहिए। यह सच है कि कोई भी चिकित्सकीय परीक्षण या जाँच प्रविधि उस चिकित्सक के लिए विशेष उपयुक्त और उपयोगी होता है जिन्हें रूग्ण व्यक्ति के लाक्षणिक श्रोतों से रोगी के मनो-शारीरिक अवस्था एवं उनकी जीवनी शक्ति की समझने की न तो क्षमता रहती है और न ही वे इस महत्वपूर्ण तथ्य या सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं।
चिकित्सा सूक्त-3.
होमियोपैथिक औषधियों / दवाओं का उपयोग या प्रयोग अपने देश के अन्दर उपस्थित शत्रु खेमों पर बम वर्षा के समान है। अतः अत्यंत सावधानी से होमियोपैथिक औषधियों / दवाओं का उपयोग या प्रयोग करना चाहिए।"
मेरे इस कथन या चिन्तन का होमियोपैथी के जनक और अन्य विद्वानों के चिन्तन के साथ तुलनात्मक अध्ययन करें।
चिकित्सा सूक्त-4.
किसी व्यक्ति की अस्वस्थता का कारण प्रत्यक्षतः कुछ भी रहा हो, लेकिन उसके निर्दोष आरोग्य हेतु उसे स्वयं पहल करनी पड़ेगी, क्योंकि बीमारी का अर्थ होता है, अपने आप पर से नियन्त्रण कम हो जाना अर्थात् जीवनी शक्ति का कमजोर हो जाना, जिससे प्राणी अपने अति मूल्यांकन या अवमूल्यन का शिकार हो जाता है।
चिकित्सा सूक्त-5.
किसी प्राणी की अस्वस्थता के मूल कारणों के सम्यक् उपचार से उसकी जीवनी शक्ति की यथेष्ट सक्रियता से वह प्राणी आत्मनिर्भर होकर निर्दोष आरोग्य को प्राप्त करता है, परन्तु रोग या अस्वस्थता के प्रत्यक्ष कारणों की उपेक्षा आत्मबल की कमी का कारण बन सकता है, जो निर्दोष आरोग्य में बाधक हो सकता है।
चिकित्सा सूक्त-6.
किसी भी चिकित्सा पद्धति में ( मुख्यतः होमियोपैथिक, बायोकेमिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में ) प्राणी की सर्द, गर्म या समशीतोष्ण प्रकृति आधारित चिकित्सा रूग्ण प्राणी के जीवनी शक्ति के प्रवलीकरण हेतु औषधि चयन और / या आवश्यक संसाधन की उपलब्धता का सहज, सुगम एवं यथेष्ट मार्ग प्रशस्त होता है, जिससे निर्दोष आरोग्य लाभ अविलम्ब प्राप्त होता है। परन्तु प्राणी की सर्द, गर्म या समशीतोष्ण प्रकृति प्राकृतिक एवं तत्कालीन दो प्रकार की होती है, जिसका सम्यक् और सन्तुलित अध्ययन कर यथेष्ट निर्णय लेना अपेक्षित होता है।
चिकित्सा सूक्त-7.
किसी भी व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों की कार्यक्षमता में कमी उसके शरीर स्थित जैविक रसायन में असन्तुलन से उत्पन्न अस्वाभाविक स्नायु प्रवाह और / या गतिरोध और / व्यतिक्रम उसके मस्तिष्क को प्राप्त होने वाले स्नायु प्रवाह तरंगों के व्यतिक्रम के प्रति सम्वेदनशीलता से प्रभावित होता है, परिणामस्वरूप उस प्राणी के वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों का स्पष्ट और / या विशिष्ट संकेत बोध के अभाव में उक्त उद्दीपनों की यथार्थ सम्वेदना नहीं हो पाता है, जिससे वास्तविक प्रत्यक्षण बाधित होता है, फलस्वरूप उसके मस्तिष्क द्वारा लिया गया निर्णयों में निर्दोषता में कमी आ जाती है और मस्तिष्क द्वारा प्राणी के मनो-शारीरिक स्थिति में उद्दीपनों के प्रति यथेष्ट सक्रियता और/या यथार्थ अनुक्रिया संकेत के अभाव में प्राणी की उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया (समायोजन एवं व्यवहार) में व्यतिक्रम दृष्टिगोचर या अनुभव होता है।
चिकित्सा सूक्त-8.
किसी भी प्राणी का अपने वातावरण के उद्दीपनों की अनुभूति एवं अनुक्रिया (समायोजन तथा व्यवहार) के क्रम में उसके मानसिक, दैहिक और / या मनोदैहिक स्थितियों से सम्बन्धित कोई ऐसा सूक्ष्म या स्थूल प्रभाव जो उस प्राणी की जीवनी शक्ति की निरन्तरता एवं प्रबलता को बाधित करता हो, उसके अपनी या अवलोकन कर्त्ता की दृष्टि में उसे सामान्य से भिन्न अवस्था में महसूस और / या प्रमाणित करता हो, उक्त स्थिति के सन्दर्भ में उस प्राणी हेतु असामान्य और / या रूग्ण की संज्ञा का उपयोग या प्रयोग किया जाता है, जिसकी सजीव अवस्था में निर्वाध समायोजन को निर्दोष आरोग्य की संज्ञा दी जाती है।
चिकित्सा सूक्त-9.
निर्दोष आरोग्य एक सतत् आरोग्य प्रक्रिया है जो प्राणी के वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों की अनुभूति एवं अनुक्रिया (समायोजन एवं व्यवहार) प्रक्रिया के क्रम में प्राणी की जीवनी शक्ति की नकारात्मक धारा को सकारात्मक दिशा प्रदान करता है तथा उसकी आत्मघाती प्रवृत्ति को दूर कर उसे विशिष्ट रूप से आत्म-प्रतिष्ठित, लक्ष्योन्मुख, धैर्य सम्पन्न, प्रतियोगी एवं संघर्ष शील बनाता है।
चिकित्सा सूक्त-10.
किसी प्राणी के वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों के प्रति उसकी अनुक्रिया (समायोजन एवं व्यवहार) के क्रम में उत्पन्न मानसिक, दैहिक या मनोदैहिक विसंगतियों के परिणामस्वरूप किसी स्थूल या सूक्ष्म पीड़ित अंगों से सम्बन्धित सद्यः उत्पन्न या तीव्र प्रभाव और / या शनैः शनैः विकसित या जीर्ण प्रभाव से आन्दोलित तथा क्षीण होती जा रही जीवनी शक्ति के पुनर्गठन हेतु आवश्यक प्राकृतिक एवं चयापचय अनुकूल संसाधनों, खनिज एवं जैव रासायनिक तत्वों के स्थूल या सूक्ष्म शक्तियों के सम्यक् तथा विधि सम्मत उपादान को औषधि कहते हैं।
डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
S/o स्वर्गीय राजेन्द्र प्रसाद सिंह,
पता :- पचम्बा, बेगूसराय, पिन कोड : 851218, बिहार (भारत)
Medical Aphorisms 1-10:
Medical Aphorism-10.
Medicine is defined as the proper and systematic application of natural and metabolic resources, minerals, and biochemical elements—in their gross or subtle forms—to reconstitute the vital force that is disturbed and weakened by acute and/or chronic effects related to gross or subtle affected organs, resulting from mental, physical, or psychosomatic abnormalities that arise in the course of an organism's response (adaptation and behavior) to stimuli present in its environment.
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