दिव्यांग-भव :-
एक गरीब लड़का नेक एवं धुन का पक्का था। उसके अन्य चारो भाई भी मेहनती थे । परिवार के सभी सदस्य कुछ न कुछ काम करते थे जिससे परिवार का काम चलता था। लड़का रेल के डब्बों में, स्टेशन पर, बस स्टैंड में, घूम घूम कर चाय बेचता था। उसके चाय की एक विशेषता थी। लड़का चाय पीने के इच्छुकों , लाभुकों, पियक्कड़ों को और यहाँ तक कि चाय नहीं पीने बालों में भी चाय पीने की इच्छा जगाकर चाय देकर आगे बढ़ जाया करता था। अपने ग्राहकों को सन्तुष्ट करना उसका काम था। किसी से उसको क्या मतलब ? अच्छे-बुरे, अमीर-गरीब, व्यस्त-वेरोजगार, पढ़े लिखे-मूर्ख सब उसके लिए बराबर थे। वह अत्यंत धैर्यवान् था। उसे विश्वास था, कि जो नमक खाता है, एक न एक दिन वह अवश्य ही उसकी कीमत देगा। उस समय आज के जैसे इतने नमकहराम लोग थोड़े मिलते थे - जो खाकर पचा देते । आज के समय में तो मुफ्त का माल खाने वाले खा कर पचाते ही नहीं, वरन् खिलाने वाले को ही पचाने में लगे रहते हैं।
खैर " जो जैसा करेगा, वैसा पायेगा।
" किसी की Biography या Auto-Biography कहीं उपलब्ध हो या न हो लेकिन प्रकृति के पास उसकी कहानी सुरक्षित रहती। कोई कुछ भी कह दे जो यथार्थ में है उसमें कोई वास्तविक अन्तर नहीं आता है।
बच्चा धुन का पक्का था। वह अपने 'मन की बात' करनेवाला था। उसने तो किसी साधु बाबा से सुन रखा था ' मन माने तो चेला, नहीं तो चलो अकेला।' यही कारण था कि उससे सभी डरते थे साथी-संगी, घर-परिवार वाले यहाँ तक कि चाय पीने वाले भी, भले ही वे अपने क्षेत्र के दादा ही क्यों न हों ?
बच्चे के पास एक बहुत बड़ा हथियार था, वह थी उसकी जीवन-कला। वह अग्रसोची, व्यवहारकुशल, मृदुभाषी और लगनशील था। वह जो सोच लेता था उसे पूरा करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहता था। लड़का अपने रास्ते के बाधकों को देखना तक नहीं चाहता था। वह हमेशा समाज को सुधारने की बातें करता रहता था और दलितों-पीड़ितों के हित चिन्तन हेतु वह हमेशा समर्पित रहता था। हमेशा परमात्मा की खोज में लगा रहता था। योग और भोग की बात करता था। वह समूची दुनिया को योगमय करना चहता था। माता-पिता, भाई-बन्धु, गाँव-समाज के लोग इस लड़के को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। सबों ने मिलकर उसके हाथ पीले कर दिये। 'बैन' लगा दिये । वह किसी से पढ़ने वाला नहीं था । परिवार वालों ने सोचा कि पत्नी आयेगी, तो लड़का कब्जे में आ जायेगा। लड़की पढ़ी लिखी है, सम्भाल लेगी।
लेकिन लड़का माननेवाला कहाँ था ? वह स्वाभिमानी था । उसका तो कहना था कि
" तजिये ताहि कोटि वैरी सम, जद्यपि परम सनेही, जाके प्रिय न राम वैदेही । " फिर क्या था " मूड़ मुड़ाय भये संन्यासी । " और फिर
" नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढ़ूढ़ूँ रे सावरिया "।
लेकिन कर्म का फल तो होता ही है । आखिर कीचड़ में " कमल " खिलना ही था। आज वह कमल दुनिया में कमाल दिखा रहा है। परमात्मा ने उसे गजब की सोच दी है। बड़े बड़े आतंकवादी आज उससे आतंकित हैं ।
उसकी कीर्ति पताका आज के समय में चारों तरफ फैल रही है, लेकिन " घर का जोगी जोगड़ा, और देश का सिद्ध । "
गाँधी के देश के इस लड़के को देखकर गाँधी ने भी काँग्रेस से अपना पिंड छुड़ाकर उसकी शरण ली । काँग्रेसियों ने सच में नाकों में दम कर दी थी - उस सदाबहार बुड्ढ़े की। गोरों का एक तमाचा क्या लगा ? उसके भाग्य बदल गये। पोरबन्दर के दीवान के उस लड़के जैसे दुनिया के ढ़ेरों लड़के उस समय कचहरी का चक्कर लगाते थे और ज्यादा मेहनत करनेवाले वकील साहब वैरिस्टर कहलाते थे। उस काले कोट वाले काले लड़के ने आखिर संकल्प ले ही लिया। "साबरमती के संत ने कर दिया कमाल।"
मंगल पाण्डेय के आन्दोलन ने देश और विदेश में अपना प्रभाव छोड़ना शुरू किया। समय की मांग ने भारत माँ के वीर सपूतों में नरम एवं गरम मार्ग पर चलने के लिए मजबूर किया और सन् सैंतालीस के 14 अगस्त को अंग्रेजों द्वारा खंडित भारत अर्द्ध रात्रि को आजाद हो गया। जनता निश्चिन्त हो गई और नेता विजय जश्न मनाने लगे। हमें कुछ मिले न मिले आजादी अवश्य मिली और मन मुताबिक आजादी मिली। राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त स्वतन्त्रता दिवस एवं 26 जनवरी गणतन्त्र दिवस पर " जनगण मन अधिनायक......" एवं " वन्दे मातरम् ......." का स्वर गूँजने लगा और हमारे देश भारत के अस्तित्व एवं अस्मिता का द्योतक तिरंगा लहराने लगा, लेकिन अवसरवादी , नेताओं, दलालों एवं नौकरशाहों के चक्कर में हम राष्ट्रीय मिठाई जलेबी की तरह घूमते और उलझते रह गए। संविधान सभा के बावजूद बाबा साहेब अम्बेडकर को संविधान निर्माता का सम्मान मिला। आदर्शों को स्थान मिला। आरक्षण, पर्शनल लॉ आदि को जगह मिली। नेता एवं अधिकारी चैन की वंशी बजाने लगे और जनता उनके इशारे पर नाचने लगी। " सबहिं नचावत राम गुसाईं, नाचत नर मर्कट की नाईं।" " तभी भारत की अखण्डता एवं एकता में विश्वास करनेवाले लोगों को यह दिन देखना पड़ रहा है और भारत तेरे टुकड़े होंगे सुनना पड़ रहा है।
लेकिन यह भारत है " हम किसी से कम नहीं " । नेहरू और जिन्ना की खींचातानी, गाँधी की चुप्पी और अंग्रेजों की बदनीयती ने भारत माता के दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और स्वयं "पाक" साफ हो गए। " सोने की दिव्य चिड़िया भारत " 7० वर्षों से अपने ही घोसले में अपनों के द्वारा प्रताड़ित होकर सर्व समर्थ रहते हुए भी विकलांग सी हो गई है। गाँधी का राम नाम सत्य होते ही उनको भँजाने की लूट मच गई। आज वे नहीं हैं, लेकिन "आम लोग" उनका झाडू माथे पर लिए फिर रहे हैं । लाठी में तेल पिलावन हो रहा है। स्वदेशी योग चल रहा है। कस्तूरबा कहीं गलियारों में विलख रही है। टोपी उतर चुकी है और जूस का अनशन चालू है। चश्मा बिखर चुका है और "चरखा" खादी छाप हो गया है। कहते हैं कि गोडसे ने छलनी कर दी तब भी गाँधी जिन्दा हैं। दुनिया जानती है कि वह ( गांधी ) दृढ़प्रतिज्ञ, लक्ष्योन्मुख, स्वावलंबी, आत्मनियन्त्रित, अहिंसावादी, सबको खुश करने की मानसिकता वाला, मानवतावादी, क्षमाशील, सत्याग्रही तथा गुनहों को नहीं छिपानेवाला व्यक्ति थे।
लेकिन देखने और सोचने वालों का अपना दृष्टिकोण होता है। जीवन देने वाले सूरज को भी हम आफताब कहते हैं। अमृत बरसाने वाले शशि पर भी कलंक लगता है, मैथिल कोकिल विद्यापति कहते हैं कि विरहणियों को भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम के सामने आनन्दमयी शशि किरणें नहीं सुहाती हैं और वे आरोप लगाती हैं " चानन भेल विषम शर रे, भूषण भेल भारी । " जबकि इसमें चन्द्रमा का क्या दोष ? किसी को भी एक तरफा नहीं बहना चाहिए । किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में ही करना समीचीन होता है, परन्तु मूल्यांकन करने वाले को अपने सवालों का मनोनुकूल जबाब चाहिए ।
"दिनकर" के शब्दों में " जो तटस्थ है, समय लिखेगा उसका भी इतिहास । " यही कारण है कि आज के सन्दर्भ में गाँधी भी अछूते नहीं रहे । लोग कहते हैं उसे ( गाँधी को ) अपने गुनाहों के पक्ष में दलील देने की कला ज्ञात् थी, क्योंकि " सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है " और गाँधी जैसे व्यक्तित्व को भी इस तरह की बातों पर विचार एवं पहल करने की आवश्यकता एवं समय कहाँ रही ?
भोगी और योगी सबके सब अपने आप को प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं, अपनी- अपनी तस्वीरों को लेकर वेतहाशा न जाने कहाँ और किधर दौड़े चले जा रहे हैं। सबके दिमाग में एक ही बात चल रही है " सदा के लिए जोड़नी है और जग में अपनी छाप छोड़नी है। " भले ही सबके सब इस सत्य से लगभग अवगत हैं कि यह जो कुछ दृष्टगोचर हो रहा है किसी भी क्षण मिटाने वाला है, फिर भी वे विरले हैं जिनका मोह जल्द गया है। सभी अपनी डफली, अपना राग अलाप रहे हैं। गाँधी ने तो अल्ला-ईश्वर के एकत्व में अपने आप को जोड़ने की कोशिश की । "अल्ला-ईश्वर तेरा नाम सबको सम्मति दे भगवान्।" लेकिन आज भी अल्ला-ईश्वर विवाद में पड़े हुए हैं, मिश्नरियाँ अपना काम कर रही हैं और वक्त के तवे पर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है ।
विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आदर्शों के आपसी आकर्षण-विकर्षण के उहापोह में धर्म-कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था आधुनिकता के मोड़ पर आकर दुर्घटना ग्रस्त हो गई है, और सामाजिक जीवन में वैयक्तिक परिवारवाद का विकास हो रहा है। समाज मे सत्ता ने जड़ जमा लिया है और वोट की राजनीति ने जाति और धर्म को केवल कुछ क्षुद्र स्वार्थ के कारण विभिन्न वर्गों में खण्डित एवं मण्डित कर रखा है और नर-नारी के बीच का भेद सनातन आदर्शों की लयबद्धता हेतु घातक साबित हो रहा है। दलितों और पीड़ितों को ढ़ाल के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
खैर छोड़िये इन सभी बातों का। हम उस चाय बेचने वाले लड़के की बातें कर रहे थे। उसके जीवन में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। कोई माने न माने वह वास्तव में दिव्य व्यक्तित्व वाला है। वैसे तो किसी के दिल एवं दिमाग में क्या चल रहा है इसका खुलासा तो उसकी सम्यक् अनुभूति एवं अभिव्यक्ति पर निर्भर करता है । परन्तु व्यवहार से वह " मातृवत् पर दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ठवत् । आत्मवत् सर्वभूतेषु, य: पश्यति स पण्डित:।।" के आदर्शों के अनुशरण का पक्षधर है । आज भी वह जब माँ के पास जाता है , प्रेम से झुककर चरण छू कर आशीर्वाद लेकर आता है ,वह पप्पू थोड़े है , जो बुढ़ापे में भी मम्मी से पप्पी की मांग करते रहता है । खैर, माँ तो महान् होती ही है " कुपुत्रो जायते, क्वचदपि माता कुमाता न भवति। "
अपने परिजनों एवं पुरजनों को सम्मान देने वाले दामोदर दास के लाल को अपने माता का कष्ट पूर्ण जीवन का एक-एक क्षण अभी भी याद है। उसकी मां ने कैसे मजदूरी करके, बर्तन माँज कर उसे और समूचे परिवार को पाला, फिर भी उसके लिए माता से भी अधिक देश का स्थान है । वह मानता है कि
" जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। "
लेकिन उस चाय बेचने वाले बच्चे को माता और पत्नी से भी अधिक देश और दलितों के लिए आकर्षण है।
वह वास्तव में एक " राष्ट्रीय स्वयंसेवक " है । उसे तो संसद में भी मंदिर नजर आता है , तभी तो रचनात्मक सेवा केन्द्र, पचम्बा, बेगूसराय ने उसे " हिन्द-उन्नायक " तक कह डाला ।
उसे इसकी परवाह थोड़े ही है कि लोग उसे क्या कहते हैं ? लोग राजा कहें या रंक। वह तो अपने आपको जनता का सेवक मानता है और प्रधान सेवक के दायित्व के निर्वहन में उसे अपने तथा अपनों की कोई चिन्ता नहीं कभी नहीं रही । उसने तो " बिहारी " की उस पंक्ति को जिसमें कहा गया है कि " जो चाहत चटक न घटे ,मैलो न होवै मित्त। रज राजसु न छुवाईवो, नेह चिकनो चित्त ।।" को चरितार्थ करने की ठान ली है और तभी तो उसका नारा है " न खाएँगे, न खाने देंगे । " वह अनावश्यक खाने के पक्ष में नहीं रहता। उसे पता है कि अधिक खाना वाले पेटू और जमाखोरों की परेशानी बढ़ जाती है- आदत जो है। यहाँ तो कुछ लोग अधिक खाने से मर रहे हैं तो शेष लोग खाना खाने के बिना मर रहे हैं।
कहते हैं भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, लेकिन स्मार्ट सिटी की चमक दमक तो कुछ और ही है तथा गाँव के गँवार लड़के जब शहर या सत्ता के दोहरे व्यक्तित्व का एक बार भी रसास्वादन कर लेते हैं, तो ऐसे बाबू के लिए उन्हें जन्म देने वाले पिता नौकर एवं सत्ता का सुख देने वाली जनता " गदहे के समान "अथवा " धोवी का कुत्ता न घर का न घाट का " के समान हो जाते हैं। वास्तव में भूखे-नंगों को क्या ? जो मरा हुआ है , उसे मिट्टी पलीद कर दो या उस पर सौ मन चन्दन लाद दो। अन्धे को क्या ? उसे तो जब पत्तल पर गड़गड़ायेगा और मुँह में जायेगा तो पता चलेगा कि घी वास्तव में गड़गड़ाया है। वह तो सुना है कि " बदा होईहैं, तब खईहैं। " उसे तो याद है भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री माननीय राजीव गाँधी ने बिहार राज्य के बेगूसराय मण्डलान्तर्गत उलाव स्थित हवाई अड्डे पर अपार जन सभा को सम्बोधित करते हुए , भारत की जनता के दर्द को समझते हुए एवं भारत की जनता एवं यहाँ के प्रशासनतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए कहा था कि " मैं एक रपया भेजता हूँ, जनता को 15 पैसे मिलते है। " सच में जहाँ "अंधेर नगरी चौपठ राजा हो" वहाँ " टके सेर सब कुछ मिलता है " और तो और वहाँ फाँसी का फंदा जिसके गले में सेट कर जाये, उस गैर-अपराधी को भी अपराधी मान कर फाँसी दे दी जाती है। यह तो हमारा प्रशासन तंत्र एवं हमारे देश की संवैधानिक शक्तियाँ हैं, जो हमारे मूल संविधान में आवश्यकता एवं भूल के नाम पर एक ओर जहाँ सामयिक परिस्थिति वश अत्यावश्यक संशोधन या परिवर्तन किया, वहीं संविधान को अपने-अपने समय के सत्ता धारियों ने अपने और अपनों के पक्ष में विकसित किया एवं संविधान को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ हमारी क्षमता एवं तर्क के सामने प्रायः वास्तविकता एवं सत्य को जलील किया जाता है, लेकिन लोग कहते हैं और हर किसी का दिल स्वीकार करता है कि " सत्य परेशान हो सकता है , लेकिन हारता नहीं है। "
चाय बेचने वाले उस बच्चे ने भी शायद सोच रखा था एक दिन मेरी विद्योत्तमा स्वेच्छा से मेरा अनुशरण करेगी; गाँधी को भी सोचना पड़ेगा, सुभाष के समान देश और विदेश में अपने व्यक्तित्व से अपने सोच के समान फौज बनाऊँगा, शास्त्री जैसा महान बनूँगा और शत्रुओं के छक्के छुड़ा दूँगा, विदेह सा योगी और भोगी रहते हुए भी स्वामी विवेकानंद के समान दुनिया में एक दिन अपना परचम लहराऊँगा, अपने कर्म-पथ पर "अटल" सा बना रहूँगा; आज भी यदि कहीं भार्तृहरि, विदुर एवं चाणक्य मिल जाये तो उनसे परहेज नहीं करूँगा; नेहरू ने मुंगेर में भूकम्प के मलवे को निकालने के लिए खुद कुदाल सम्भाली तो मैं भी " नीति " से जहाँ भी कचरा होगा उसे झाड़ू से साफ कर दूँगा । आज इंदिरा रहती तो देखती इसका कमाल, इसका अन्त:करण मानो कह रहा हो कि हमारे हाथ में भगवान ने कर्म की शक्ति और सुन्दर भाग्य दिये हैं और हमें विवेकपूर्ण ढ़ंग से जनता जनार्दन का दिल जीतना होगा । हर " हाथ " में प्रतिशोध की ज्वाला से प्रभावित " हथौड़ा " नहीं वरन् कीचड़ में से निकलता हुआ " कमल " होगा और जो मानव रचनात्मक एवं सकारात्मक सोच के आदर्श की पूजा कर सकेगा उसी के हाथ में धन, धर्म, विवेक और यश का निवास होगा तथा विश्व कर्मा की सही पूजा हो सकेगी। संभव है इसी तरह की सोच से प्रभावित हो कर 16/05/2014 को जब उसकी जीत के लिए विपक्ष भी उसे शुभकामनाएं दे रहे थे, उसे " A.K.Shailaj " के सपनों का " प्रजातंत्र " दिखाई दे रहा था जिसमें कहा गया था " Democracy is an ideal social adjustment process & relatively the best administrative approach for multidimensional development of human beings. " अर्थात् " प्रजातंत्र मानव के बहु आयामी विकास की तुलनात्मक रूप से सर्वश्रेष्ठ प्रशासनिक व्यवस्था तथा एक आदर्श सामाजिक समायोजन प्रक्रिया है। " परन्तु "रामानुज लक्ष्मण" के समान अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित चाय बेचने वाले उस गरीब बालक की आँखों में नींद कहाँ ? उसे तो " दशरथनन्दन " के समान " नंदी ग्राम " का सा राज्य और बनवास एक साथ सूझ रहा था। इसलिए उसने सोशल मीडिया पर लिखा था " In democracy there are political rivals but no enemies. People's mandate is important & together we have to work for welfare of the people. " अर्थात् " लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी होते हैं लेकिन कोई दुश्मन नहीं। लोगों का जनादेश महत्वपूर्ण है और साथ में हमें लोगों के कल्याण के लिए काम करना है। "
यही कारण है कि भगवान् भोले भंडारी तो उस पर लट्टू ही हो गए और 5 वर्षों के लिए अपने त्रिशूल पर बसाये अपनी नगरी का प्रतिनिधित्व तक दे दिया । गोस्वामीजी कहते हैं " जा पर कृपा राम के होई, ता पर कृपा करहिं सब कोई ।" फिर राम की महिमा तो अपार है। अयोध्या ही क्यों? प्राणियों का हृदय और सम्पूर्ण जगत ही उनका निवास स्थान है। कोई माने या नहीं माने वे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई इत्यादि सभी के लिए एक समान हैं और अल्ला, ईश्वर या God किसी भी नाम से पुकारें, सर्वशक्तिमान सत्ता तो एक ही हैं और संसार के कण-कण में हर प्राणी में विद्यमान् हैं। उन्होंने अन्तरात्मा की आवाज सुनी और " यू .ई.ए." में मंदिर बनवा दिया। एक चाय बेचने वाले गरीब बालक को प्रधानमंत्री बना दिया। दुनिया के अनेकानेक नरेश आपसी वैर विरोध का परित्याग कर विश्व गुरु भारत के उस " नरेन्द्र " के राजतिलक की शोभा बढ़ाने के लिए आर्यावर्त्त पहुँचे और विश्व ने भारत के आदर्श एवं नेतृत्व के महत्व को स्वीकार किया। बालक नरेन्द्र का बढ़ता हुआ दायित्व क्षेत्र अब गुजरात के अहमदाबाद तक ही नहीं वरन् भारत के कण-कण तथा विश्व के समस्त मानवों के लिए समत्व भाव से युक्त हो गया और वह भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से प्रकट श्रीमद्भगवद्गीता के " समत्वं योग उच्यते " के आदर्शों पर चलने हेतु तत्पर हो गया परन्तु संसार मे आज भी रावण, कंस,श शकुनि,दुश्शासन तथा दुर्योधन की कमी नहीं है और उसने " बिना युद्धेन न केशव: " की घोषणा आखिर कर ही दी।
आदर्शों का चीरहरण हो रहा है और उसके रक्षक चुप बैठे हुए हैं। खैर भोगना तो होगा ही सबों को। कर्म फल गाय के बछड़े के समान कर्त्ता के पीछे-पीछे चलता है। भगवान देव और दानव सबको एक समान अवसर देते हैं, दोनों पक्षों को मनोनुकूल वरदान देते हैं, परन्तु मन ही मन सबों को " दिव्यं भव " का वरदान भी देते हैं, लेकिन मनोनुकूल वरदान पाकर देव या दानव जब-जब मद मस्त हो गये हैं, अहंकार ने उन्हें पथ भ्रष्ट कर दिया है और वे निवृत्ति मार्गी होते हुए भी घनघोर प्रवृत्ति मार्गी हो जाते हैं।
थियोसोफिकल सोसायटी की प्रसिद्ध पत्रिका "अध्यात्म ज्योति " में "सत्य की ओर" नाम से प्रकाशित एवं akshailaj.blogspot.com द्वारा जारी " प्रज्ञा सूक्तं " में कहा गया है कि " पतनेव प्रवृत्तिरूच्यते ।"
मद किसे नहीं होता है " यौवनं ,धन सम्पत्ति:, प्रभुत्वं, अविवेकिता । एकैकम$पि अनर्थाय, किमु यत्र चतुष्टयम् ।। "
भगवान की माया अपार है । केशव कहते हैं
"मम माया दुरत्यया।" उन्होंने अपने अन्तरंग नरेन्द्र को भी अपनी माया में डाल दिया और
बचपन से आर्थिक एवं मनोशारीरिक रूप से विकलागों के प्रति समाज के कुछ लोगों के अमानवीय व्यवहार से प्रभावित नरेन्द्र ने विकलांगो के उत्साहवर्धन हेतु उन्हें दिव्यांग कह कर दिव्यांगता को विकलांगता का पर्याय घोषित कर दिया है। इस तरह विकलांगों को दिव्यांगता का वरदान तो मिल गया ,उन्हें सम्मान अवश्य मिला, उनका उत्साह वर्धन हुआ, लेकिन वे दिव्यांग हो नहीं पाये,जबकि अहर्निश उनके समुचित देखरेख की जरुरत है और राजा का कर्त्तव्य है कि वे विद्वान्,राष्ट्र हितैषी एवं विश्व हितैषी जन के सहयोग से विश्व के प्राणियों के मनोशारीरिक हित में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें।
इधर नरेन्द्र द्वारा विकलांगो को दिव्यांग कह देने से पितामह ब्रम्हा जी परेशान हो गए। वे तो एक बार जो लिख देते उसे बदलते नहीं है, लेकिन अज जाया सरस्वती जी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं देकर समय पर छोड़ दिया और नारदजी भी नारायण का नाम लेकर कर्म फल की प्रतीक्षा में वैकुण्ठ चले गये । नरेन्द्र की सलाह माँ शारंदे भी मानती हैं, तभी तो सभी वैयाकरणों की बोलती बंद हो गई क्योंकि जिस तरह भगवान् राम ने पत्थर की अहिल्या को छू दिया तो वह श्रापित स्त्री जीवन्त नारी हो गई, इस लड़के ( जो अब हमारे देश और समाज के ही नहीं वरन् विश्व के माननीय व्यक्तित्व में से एक हैं ) की कृपा से विकलांग अब दिव्यांग कहलाने लगे। परन्तु यह विचारणीय और द्रष्टव्य है कि माँ दुर्गा कहती हैं " यं यं चिन्तयेत् कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।। " अक्षर ब्रह्म होते हैं। हर अक्षर, शब्द एवं वाक्य का अपना महत्व होता है और हमें किसी भी भाषा-साहित्य के संविधान में उसके अस्तित्व एवं अस्मिता के विरुद्ध हस्तक्षेप करने का कोई नैतिक आधार नहीं है। विकलांग के लिए जब से दिव्यांग का प्रयोग होने लगा उस समय से दिव्यांग और विकलांग को लोग एक दूसरे का पर्याय मानने लगे हैं जबकि दिव्यांगता विकलांगता का उपचार है और विकलांगता के दोषों को दूर करती है।
नरेन्द्र ने तो पवित्र भाव से विकलांगो को दिव्यांग कहकर उन्हें सम्मानित किया, लेकिन गाँव-समाज में लोग यदि किसी मनोशारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति को अब दिव्यांग कह कर पुकारते है तो प्रायः वह आपसी विवाद एवं तनाव का विषय हो जाता है। बाल की खाल निकलने वाले या अति संवेदनशील लोग अब विकलांग होने के भय से भगवान् से भी " दिव्यांग भव " का वरदान मांगने के पक्ष में नहीं हैं। जबकि शब्द से भी अधिक महत्व भाव का होता है और विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर एक दूसरे को दी गई गाली भी कर्णप्रिय एवं आनन्दवर्धक होती है। इसलिए तो कहीं-कहीं पिता और भगवान् के लिए कालांतर से प्रेम और आदरपूर्वक पुकारने में भी "रे" सम्बोधन का प्रयोग या उपयोग होता है, जबकि " रे " सामान्य तौर पर एक अनादर सूचक शब्द है।
कहते हैं कि शब्दों का प्रभाव तो पड़ता ही है।
लोगों का विश्वास है कि युग बदल रहा है और आम लोगों का विध्वंसात्मक सोच जिस गति से बढ़ रहा है, उससे उत्पन्न मानव जनित और / या प्राकृतिक प्रभाव के फलस्वरूप नागासाकी एवं हिरोसमा के समान भावी पीढ़ी विकलांगों के बाढ़ का कारक होगा तथा " नरेन्द्र " की भाषा में आने वाले समय में चारों तरफ दिव्यांग ही दिव्यांग दिखाई पड़ेंगे।
भगवान श्रीकृष्ण श्रीमदभगवदगीता में कहते हैं:- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:।और " युक्ताहारविहारस्य,युक्त कर्म सुचेष्ठषु ।
युक्त स्वप्नाववोधस्य, योगो भवति दु:खहा ।।
परन्तु यह सब कुछ " हसब ठठायब,फुलायब गालू " से नहीं होगा ।
नरेन्द्र को बचपन से ही समय के थपेड़ों ने यह सब कुछ सिखाया और उसमें " देश, काल और पात्र " की समझ विकसित हुई, जिसका विवेकपूर्ण उपयोग मनुष्य को देवताओं से उच्च श्रेणी प्रदान करता है । अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए " मनसा, वाचा, कर्मणा " अपने उद्देश्य हेतु समर्पण ईष्ट सिद्धि प्रदान करता है। हमारे रचनात्मक एवं सकारात्मक सोच से ही हमारा सम्यक् एवं सर्वांगीण विकास संभव है और इसके लिए हमें किसी से भी सीखने में संकोच नहीं करना चाहिए। नरेन्द्र ने भी हर किसी से सीखने की कोशिश की और महान् उपलब्धि पाने पर भी अपने गुरु को हृदय में स्थान दिया, जो उसके व्यवहार से दृष्टगोचर होता है। नरेन्द्र ने " गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो गोविन्द दियो बताय।। " इस प्रकार नरेन्द्र ने " मातृ देवो भव । पितृ देवो भव। अतिथि देवो भव। आचार्य देवो भव। " के आदर्शों को अपनाने की कोशिश की और शत्रुओं के साथ भी मित्रवत् व्यवहार कर उसमें विश्व बन्धुत्व,मानवतावादी,रचनात्मक एवं सकारात्मक सोच विकसित करने की कोशिश की परन्तु " मूरख हृदय न चेत,जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम " ।
अहंकार तो विनाश का कारक होता ही है। अच्छे वुरे सभी को यह आगोश में समेट लेता है। कहा भी गया है कि " काल दण्ड गहि,काहू नहीं मारा । हरै धर्म, बल, बुद्धि , विचारा।। "
संत कबीर ने भी कहा कि " चलती चाकी देख कर, दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। पर यह धरती रत्न गर्भा है, यहाँ सेर को सवा सेर से भेंट हो जाती है और यही कारण है कि कबीर के पुत्र कमाल ने उनके जबाव में कहा कि " चलती चाकी देखकर हँसा कमाल ठठाय,कील पकड़ कर जो रहे, सो साबुत बच जाय।। भगवान् की शरणागति में जो जाता है ,उसे वे वास्तव में दिव्य बना देते हैं। कुब्जा को उन्होंने दिव्यता का वरदान दिया और कुबड़ी से दिव्य (अत्यंत सुन्दर) नारी में परिवर्तित कर दिया।
भक्त वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं " सर्व धर्माणि परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षस्यामि मा शुच:।।
( हास्य-व्यंग्य एवं यथार्थ आधारित " दिव्यांग भव " नामक मेरी यह प्रथम कहानी किसी व्यक्ति या शक्ति विशेष के प्रति किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं है, अतएव यदि किन्हीं से इस कहानी की घटनाएं मिलती हैं तो उनसे मेरा आग्रह है कि वे अन्यथा भाव नहीं लेंगे। )
प्रो० अवधेश कुमार शैलज ,पचम्बा, बेगूसराय।
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