शुक्रवार, 6 जून 2025

'प्रज्ञा-सूक्तं'

'प्रज्ञा-सूक्तं'
-प्रो०अवधेश कुमार 'शैलज',पचम्बा, बेगूसराय ।
ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।। १।।
अर्थात्
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं ।
प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।२।।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण होता है ।
जीव देहे तिष्ठति ।।३।।
जीव देह में रहता है ।
देहात काल ज्ञानं भवति ।।४।।
देह से समय का ज्ञान होता है ।
देहमेव देशोच्चयते ।।५।।
देह ही देश कहलाता है ।श
देशकालस्य सम्यक् अज्ञानस्य कारणं भवति ।।६।।
देश एवं काल के सम्यक् (ठीक-ठीक एवं पूरा-पूरा) ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण होता है ।
अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।७।।
अज्ञान् से भ्रम ( वस्तु/व्यक्ति/स्थान/घटना की उपस्थिति में भी सामान्य लोगों की दृष्टि में उसका सही ज्ञान नहीं होना)  पैदा/ उत्पादित होता है ।
भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।८।।
भ्रम (Illusion) से विभ्रम (Hallucination) पैदा या उत्पन्न होता है ।
विभ्रमात् पतनं भवति ।।९।।
विभ्रम (विशेष भ्रम अर्थात् व्यक्ति,वस्तु या घटना के अभाव में उनका बोध या ज्ञान होना) से पतन होता है ।
पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।१०।।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाती है ।
प्रवृत्ति: भौतिकी सुखं ददाति ।।११।।
प्रवृत्ति भौतकी सुख प्रदान करता है ।
भौतिकी सुखं दु:खोत्पादयति ।।१२।।
भौतिकी सुख दु:ख उत्पन्न करती है ।
सुखदु:खाभात् निवृत्ति: प्रकटति ।। १३ ।।
सुख दुःख के अभाव से निवृत्ति ( संसार से मुक्त होने की प्रवृत्ति ) प्रकट होती है ।
निवृत्ति: मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।१४।।
निवृत्ति मार्ग ही संन्यास कहलाता है ।
संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।। १५।।
संन्यास ही परमात्म का पथ या मार्ग है ।
संन्यासी आत्मज्ञ: भवति ।। १६।।
संन्यासी आत्मज्ञानी होते हैं ।
आत्मज्ञ: ब्रह्मविद् भवति ।।१७।।
आत्मज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी होते हैं ।.
जीव ब्रह्म योग समाधिरुच्चयते ।।१८।।
जीव और ब्रह्म का योग ही वास्तव में समाधि कहलाता है ।
नोट :- ज्ञातव्य है कि थियोसोफिकल सोसायटी की अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा डॉ०राधा वर्नीयर को जब मेरी इस रचना की जानकारी हुई तो उन्होंने इस रचना का शीर्षक 'सत्य की ओर' दिया साथ ही इस रचना पर अपनी सम्पदकीय टिप्पणी देते हुए थियोसोफिकल सोसायटी की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका 'अध्यात्म ज्योति' में मुझ अवधेश कुमार 'शैलज' के नाम से प्रकाशित करवाया, जिसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ ।
यह “प्रज्ञा-सूक्तम्” प्रो. अवधेश कुमार 'शैलज' द्वारा रचित एक अत्यंत सूक्ष्म, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथवत पद्यात्मक रचना है, जो अद्वैत वेदांत, योग, और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणों का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है। यह रचना शाब्दिक रूप से सूक्त (गूढ़ वाक्य) के रूप में आत्मा, परमात्मा, देह, काल, देश, अज्ञान, भ्रम, विभ्रम, पतन, प्रवृत्ति, सुख-दुख, निवृत्ति, संन्यास, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान और समाधि के क्रमिक तात्त्विक विकास का मार्गदर्शन करती है।
रचना की विशिष्टताएँ:
1. सूक्त शैली में वैदिक तत्त्वज्ञान: प्रत्येक वाक्य एक सूत्रवत् दर्शन को उद्घाटित करता है, जैसे –
“देहात् काल ज्ञानं भवति” – समय की अनुभूति देह से ही संभव है, यह कथन दर्शन एवं मनोविज्ञान दोनों में गूढ़ अर्थ रखता है।
2. दार्शनिक अनुक्रम:
स्वयमेव प्रकटति से लेकर जीव ब्रह्म योग समाधिरुच्यते तक एक क्रमिक यात्रा दर्शाई गई है – अज्ञान से आत्मज्ञान और समाधि की ओर।
भ्रम से विभ्रम, फिर पतन और प्रवृत्ति – यह चार स्तरों में चेतना की गिरावट का सूक्ष्म विश्लेषण है।
3. मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि:
भ्रम (illusion) और विभ्रम (hallucination) का स्पष्ट भेद प्रस्तुत कर, यह रचना भारतीय मनोविज्ञान के उस पक्ष को भी स्पर्श करती है जो आधुनिक क्लिनिकल साइकोलॉजी में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
4. संकल्पना और शैली:
संस्कृत में रचित यह रचना संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली है, तथा प्रत्येक वाक्य के साथ हिन्दी अर्थ से इसका दार्शनिक गूढ़ार्थ स्पष्ट होता है।
शैली उपनिषदों की तरह सूत्रात्मक एवं चिंतनशील है।
5. वैश्विक मान्यता:
डॉ. राधा बर्नियर जैसी विभूति द्वारा इस रचना को “सत्य की ओर” शीर्षक देना और ‘अध्यात्म ज्योति’ में प्रकाशित करना, इसकी गम्भीरता और महत्व को रेखांकित करता है।
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सुझाव:
यदि आप चाहें, तो इस “प्रज्ञा-सूक्तम्” को एक अकादमिक टीका-संहिता (शास्त्रीय भाष्य सहित), या बाइलींगुअल पोएटिक-दर्शनिक पुस्तक के रूप में विकसित किया जा सकता है, जिसमें:
प्रत्येक सूत्र का विस्तृत भाष्य (हिन्दी/अंग्रेजी में),
मनोवैज्ञानिक/दार्शनिक तुलनात्मक दृष्टिकोण,
आधुनिक सन्दर्भों में इसकी उपयोगिता,
और पारंपरिक शास्त्रों से इसके संवाद को रखा जा सकता है।
यदि आप चाहें, तो मैं इस पर टीका, अनुक्रमणिका, व्याख्या या प्रकाशन-रूपांतरण में सहायता कर सकता हूँ।
बहुत अच्छा निर्णय है। इस “प्रज्ञा-सूक्तम्” पर आधारित ग्रंथ को निम्नलिखित रूप में विकसित किया जा सकता है:
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पुस्तक का प्रारूप (संभावित अध्याय विभाजन)
1. भूमिका (Introduction)
रचना की पृष्ठभूमि, लेखक की संक्षिप्त परिचयात्मक झलक
‘प्रज्ञा-सूक्तम्’ की रचनात्मक प्रेरणा एवं महत्व
2. मूल पाठ: प्रज्ञा-सूक्तम् (संस्कृत)
मूल सूक्त १ से १८ तक, क्रम सहित
3. हिन्दी भावार्थ (Each verse with translation)
प्रत्येक सूत्र का सरल हिन्दी में सटीक अनुवाद
4. शास्त्रीय भाष्य (Detailed Commentary)
प्रत्येक सूत्र पर गहराई से व्याख्या
वेद, उपनिषद, गीता, योग-दर्शन व मनोविज्ञान से संदर्भ
5. मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
भ्रम, विभ्रम, पतन आदि पर आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि
सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य
6. दार्शनिक संदर्भ
अद्वैत वेदांत, सांख्य, बौद्ध और थियोसोफी की तुलना
जीवन, मृत्यु, आत्मा, ब्रह्म और निवृत्ति की धारणा
7. समकालीन प्रासंगिकता
आध्यात्मिक भटकाव, मानसिक स्वास्थ्य, भौतिकवाद, और आंतरिक शांति
आधुनिक जीवन में ‘प्रज्ञा-सूक्तम्’ का महत्व
8. डॉ. राधा बर्नियर की टिप्पणी
यदि पत्रिका या टिप्पणी उपलब्ध हो तो उसका सटीक प्रस्तुतीकरण
9. लेखक के शब्दों में (Reflection by Prof. Shailaj)
यदि उपलब्ध हो, तो स्वयं लेखक द्वारा टीका, टिप्पणी, संस्मरण
10. परिशिष्ट (Appendix)
प्रमुख परिभाषाएँ
ग्रंथ-सूची
विषयानुक्रमणिका (Index)
दो भाषा संस्करण (हिन्दी-अंग्रेज़ी) सार-सूक्तियों का तालिका
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यदि आप चाहें, तो हम इसे एक Google Doc या Word Document के रूप में बनाना शुरू कर सकते हैं, ताकि आप संपादन करते रहें।
अब आप बताएं:
1. क्या आप इसमें अंग्रेज़ी अनुवाद भी जोड़ना चाहेंगे?
2. क्या "शास्त्रीय भाष्य" अनुभाग में शंकराचार्य या उपनिषदों के हवाले भी रखें?
3. क्या रचना की किसी टीका की रूपरेखा पहले से बनी है?
जैसे ही आप निर्देश दें, मैं अध्याय 1 ("भूमिका") और मूल सूक्तों की टाइपसेटिंग से प्रारंभ कर सकता हूँ।प्रज्ञा-सूक्तम्
रचयिता: प्रो. अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय
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अध्याय 1: भूमिका
"प्रज्ञा-सूक्तम्" प्रोफेसर अवधेश कुमार 'शैलज' द्वारा रचित एक गूढ़ और सूक्ष्म तात्त्विक रचना है, जो वैदिक दर्शन, मनोविज्ञान, और अध्यात्म का संगम प्रस्तुत करती है। यह काव्यात्मक सूत्रों की शृंखला न केवल आत्मा और ब्रह्म के संबंध को उद्घाटित करती है, बल्कि मानव चेतना के भ्रम, पतन और पुनरुत्थान की यात्रा को भी सटीक शब्दों में अभिव्यक्त करती है।
यह रचना मुख्यतः संस्कृत में है, परन्तु प्रत्येक सूत्र के साथ हिन्दी अर्थ भी लेखक द्वारा जोड़ा गया है, जिससे यह विद्वानों के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी ग्राह्य हो सके। डॉ. राधा बर्नियर (पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा, थियोसोफिकल सोसायटी) ने इस रचना को "सत्य की ओर" शीर्षक प्रदान किया और 'अध्यात्म-ज्योति' पत्रिका में प्रकाशित कर इसकी महत्ता को रेखांकित किया।
"प्रज्ञा-सूक्तम्" का उद्देश्य केवल ज्ञान का संप्रेषण नहीं, बल्कि उस चेतना का उद्घाटन है जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ती है। यह सूक्त मानव के बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी स्तरों को स्पर्श करता है।
इस ग्रंथ की टीका और व्याख्या का प्रयास इस भाव से किया जा रहा है कि यह आधुनिक संदर्भों में अधिक अर्थपूर्ण और प्रयोगयोग्य बन सके।
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अध्याय 2: मूल पाठ एवं हिन्दी अर्थ
1. ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।।
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं।
2. प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण होता है।
3. जीव देहे तिष्ठति ।।
जीव देह में रहता है।
4. देहात काल ज्ञानं भवति ।।
देह से समय का ज्ञान होता है।
5. देहमेव देशोच्चयते ।।
देह ही देश कहलाता है।
6. देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावं अज्ञानस्य कारणं भवति ।।
देश एवं काल के सम्यक् ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण होता है।
7. अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।
अज्ञान से भ्रम उत्पन्न होता है।
8. भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।
भ्रम से विभ्रम उत्पन्न होता है।
9. विभ्रमात् पतनं भवति ।।
विभ्रम से पतन होता है।
10. पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाता है।
11. प्रवृत्तिः भौतिकी सुखं ददाति ।।
प्रवृत्ति भौतिक सुख देती है।
12. भौतिकी सुखं दुःखोत्पादयति ।।
भौतिक सुख दुःख उत्पन्न करता है।
13. सुखदुःखाभावात् निवृत्तिः प्रकटति ।।
सुख-दुःख के अभाव से निवृत्ति प्रकट होती है।
14. निवृत्तिः मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।
निवृत्ति मार्ग ही संन्यास कहलाता है।
15. संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।।
संन्यास ही परमात्मा का पथ है।
16. संन्यासी आत्मज्ञः भवति ।।
संन्यासी आत्मज्ञानी होता है।
17. आत्मज्ञः ब्रह्मविद् भवति ।।
आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी होता है।
18. जीव-ब्रह्म योगः समाधिरुच्चयते ।।
जीव और ब्रह्म का योग ही समाधि कहलाता है।
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अध्याय 3: शास्त्रीय भाष्य
सूत्र 1: ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।।
भाष्य: यह सूत्र उपनिषदों और वेदों की मूल भावना को संक्षिप्त रूप में प्रकट करता है। 'ऊँ' केवल एक ध्वनि नहीं, अपितु समस्त सृष्टि, सत्ता और चेतना का मूल बीज है। 'स्वयमेव' का अर्थ है—कोई बाह्य प्रेरणा नहीं, कोई द्वितीय कारण नहीं; परमात्मा की अभिव्यक्ति स्वयं में पूर्ण है, आत्म-स्फूर्त है। यह अद्वैत वेदान्त के उस सिद्धांत को पुष्ट करता है जहाँ ब्रह्म को अजन्मा, स्वतःसिद्ध और निर्गुण कहा गया है।
शंकराचार्य ने 'ब्रह्म सूत्र' के भाष्य में कहा है—“जन्माद्यस्य यतः”—जिससे यह सब उत्पन्न होता है। लेकिन 'स्वयमेव प्रकटति' कहकर लेखक ब्रह्म के 'अविर्भाव' पर बल देते हैं न कि उसके सृष्टिकर्ता होने पर। यह दार्शनिक दृष्टि ब्रह्म को न केवल सृष्टा, अपितु चेतना रूप में प्रत्यक्ष अनुभव का विषय भी बनाती है।
यहाँ 'प्रकटति' शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल अस्तित्व को सूचित करता है, अपितु 'अहं अनुभव' या 'साक्षात्कार' की ओर संकेत करता है। इस दृष्टि से 'ऊँ' की ध्वनि साधक के भीतर उस आत्म-स्मृति को जागृत करती है जिससे परमात्मा 'प्रकट' होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सूत्र 'self-realization' की प्रक्रिया से जुड़ता है, जहाँ व्यक्ति बाह्य संसार से भीतर की यात्रा करता है और अपने ही भीतर स्थित दिव्यता को अनुभव करता है।
निष्कर्ष: यह सूत्र समस्त सूक्त की नींव है, क्योंकि जहाँ यह स्वीकार किया जाता है कि परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं, वहीं से समस्त अस्तित्व की यात्रा प्रारम्भ होती है—जीव, देह, देश-काल, अज्ञान, भ्रम, प्रवृत्ति, निवृत्ति और अंततः समाधि।
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सूत्र 2: प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।
भाष्य: यह सूत्र प्रथम सूत्र का तात्त्विक विकास है। जब 'परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं', तो वह प्रकटता ही सृष्टि का प्रारम्भ है। उसी प्रकटता से 'जीव' उत्पन्न होता है। यहाँ 'जीव' शब्द केवल श्वास लेनेवाले प्राणी के रूप में प्रयुक्त नहीं है, अपितु वह चेतना-चिन्मात्र सत्ता है जो देहधारी होने से पूर्व ब्रह्म की छाया मात्र होती है।
'कारणम्' शब्द इस सूत्र का केन्द्रीय बिंदु है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जीव की सत्ता का मूल कारण कोई यांत्रिक, रासायनिक, या जैविक प्रक्रिया नहीं, अपितु ब्रह्म की चेतना का स्वयं में प्रकट होना है।
उपनिषदों में कहा गया है—"स एकदा आत्मानं एव अवेद"—उसने स्वयं को जाना और सृष्टि प्रारंभ हुई। यही दर्शन इस सूत्र में संक्षिप्त रूप में व्यक्त है।
योग और सांख्य के दृष्टिकोण से, जीव प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होता है; लेकिन यहाँ 'प्रकटन' को प्राथमिक माना गया है। अर्थात् 'पुरुष' (परमात्मा) जब चेतन रूप में 'जागृत' होता है, तभी 'जीव' (व्यक्त चेतना) का आरम्भ होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सूत्र यह संकेत करता है कि व्यक्ति की चेतना, आत्म-बोध का परिणाम है। जब आत्मा या 'I-consciousness' उभरती है, तभी जीव की यात्रा प्रारम्भ होती है। यह मनोविज्ञान में self-awareness के क्षण से मिलती-जुलती अवधारणा है।
निष्कर्ष: इस सूत्र से यह ज्ञात होता है कि जीव कोई पृथक सत्ता नहीं, अपितु ब्रह्म की प्रकट चेतना का ही रूप है। जैसे सूर्य की किरण सूर्य से अलग नहीं होती, वैसे ही जीव भी ब्रह्म के प्रकट होने से ही अस्तित्व में आता है। यही अद्वैत की मूलधारा है।
पाठ का पहला और दूसरा सूत्र, साथ ही उनकी गहराई से व्याख्या अब शामिल कर दी गई है। यदि आप तीसरे सूत्र से आगे की व्याख्या, व्यावहारिक दृष्टिकोण, या श्लोकों का विस्तार चाहते हों, तो बताइए—मैं उसी क्रम में अगला भाग प्रस्तुत कर सकता हूँ।प्रज्ञा-सूक्तम्
रचयिता: प्रो. अवधेश कुमार 'शैलज', पचम्बा, बेगूसराय
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अध्याय 1: भूमिका
"प्रज्ञा-सूक्तम्" प्रोफेसर अवधेश कुमार 'शैलज' द्वारा रचित एक गूढ़ और सूक्ष्म तात्त्विक रचना है, जो वैदिक दर्शन, मनोविज्ञान, और अध्यात्म का संगम प्रस्तुत करती है। यह काव्यात्मक सूत्रों की शृंखला न केवल आत्मा और ब्रह्म के संबंध को उद्घाटित करती है, बल्कि मानव चेतना के भ्रम, पतन और पुनरुत्थान की यात्रा को भी सटीक शब्दों में अभिव्यक्त करती है।
यह रचना मुख्यतः संस्कृत में है, परन्तु प्रत्येक सूत्र के साथ हिन्दी अर्थ भी लेखक द्वारा जोड़ा गया है, जिससे यह विद्वानों के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी ग्राह्य हो सके। डॉ. राधा बर्नियर (पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा, थियोसोफिकल सोसायटी) ने इस रचना को "सत्य की ओर" शीर्षक प्रदान किया और 'अध्यात्म-ज्योति' पत्रिका में प्रकाशित कर इसकी महत्ता को रेखांकित किया।
"प्रज्ञा-सूक्तम्" का उद्देश्य केवल ज्ञान का संप्रेषण नहीं, बल्कि उस चेतना का उद्घाटन है जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ती है। यह सूक्त मानव के बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी स्तरों को स्पर्श करता है।
इस ग्रंथ की टीका और व्याख्या का प्रयास इस भाव से किया जा रहा है कि यह आधुनिक संदर्भों में अधिक अर्थपूर्ण और प्रयोगयोग्य बन सके।
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अध्याय 2: मूल पाठ एवं हिन्दी अर्थ
1. ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।।
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं।
2. प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण होता है।
3. जीव देहे तिष्ठति ।।
जीव देह में रहता है।
4. देहात काल ज्ञानं भवति ।।
देह से समय का ज्ञान होता है।
5. देहमेव देशोच्चयते ।।
देह ही देश कहलाता है।
6. देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावं अज्ञानस्य कारणं भवति ।।
देश एवं काल के सम्यक् ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण होता है।
7. अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।
अज्ञान से भ्रम उत्पन्न होता है।
8. भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।
भ्रम से विभ्रम उत्पन्न होता है।
9. विभ्रमात् पतनं भवति ।।
विभ्रम से पतन होता है।
10. पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाता है।
11. प्रवृत्तिः भौतिकी सुखं ददाति ।।
प्रवृत्ति भौतिक सुख देती है।
12. भौतिकी सुखं दुःखोत्पादयति ।।
भौतिक सुख दुःख उत्पन्न करता है।
13. सुखदुःखाभावात् निवृत्तिः प्रकटति ।।
सुख-दुःख के अभाव से निवृत्ति प्रकट होती है।
14. निवृत्तिः मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।
निवृत्ति मार्ग ही संन्यास कहलाता है।
15. संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।।
संन्यास ही परमात्मा का पथ है।
16. संन्यासी आत्मज्ञः भवति ।।
संन्यासी आत्मज्ञानी होता है।
17. आत्मज्ञः ब्रह्मविद् भवति ।।
आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी होता है।
18. जीव-ब्रह्म योगः समाधिरुच्चयते ।।
जीव और ब्रह्म का योग ही समाधि कहलाता है।
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अध्याय 3: शास्त्रीय भाष्य
सूत्र 1: ऊँ स्वयमेव प्रकटति ।।
भाष्य: यह सूत्र उपनिषदों और वेदों की मूल भावना को संक्षिप्त रूप में प्रकट करता है। 'ऊँ' केवल एक ध्वनि नहीं, अपितु समस्त सृष्टि, सत्ता और चेतना का मूल बीज है। 'स्वयमेव' का अर्थ है—कोई बाह्य प्रेरणा नहीं, कोई द्वितीय कारण नहीं; परमात्मा की अभिव्यक्ति स्वयं में पूर्ण है, आत्म-स्फूर्त है। यह अद्वैत वेदान्त के उस सिद्धांत को पुष्ट करता है जहाँ ब्रह्म को अजन्मा, स्वतःसिद्ध और निर्गुण कहा गया है।
शंकराचार्य ने 'ब्रह्म सूत्र' के भाष्य में कहा है—“जन्माद्यस्य यतः”—जिससे यह सब उत्पन्न होता है। लेकिन 'स्वयमेव प्रकटति' कहकर लेखक ब्रह्म के 'अविर्भाव' पर बल देते हैं न कि उसके सृष्टिकर्ता होने पर। यह दार्शनिक दृष्टि ब्रह्म को न केवल सृष्टा, अपितु चेतना रूप में प्रत्यक्ष अनुभव का विषय भी बनाती है।
यहाँ 'प्रकटति' शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल अस्तित्व को सूचित करता है, अपितु 'अहं अनुभव' या 'साक्षात्कार' की ओर संकेत करता है। इस दृष्टि से 'ऊँ' की ध्वनि साधक के भीतर उस आत्म-स्मृति को जागृत करती है जिससे परमात्मा 'प्रकट' होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सूत्र 'self-realization' की प्रक्रिया से जुड़ता है, जहाँ व्यक्ति बाह्य संसार से भीतर की यात्रा करता है और अपने ही भीतर स्थित दिव्यता को अनुभव करता है।
निष्कर्ष: यह सूत्र समस्त सूक्त की नींव है, क्योंकि जहाँ यह स्वीकार किया जाता है कि परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं, वहीं से समस्त अस्तित्व की यात्रा प्रारम्भ होती है—जीव, देह, देश-काल, अज्ञान, भ्रम, प्रवृत्ति, निवृत्ति और अंततः समाधि।
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सूत्र 2: प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति ।।
भाष्य: यह सूत्र प्रथम सूत्र का तात्त्विक विकास है। जब 'परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं', तो वह प्रकटता ही सृष्टि का प्रारम्भ है। उसी प्रकटता से 'जीव' उत्पन्न होता है। यहाँ 'जीव' शब्द केवल श्वास लेनेवाले प्राणी के रूप में प्रयुक्त नहीं है, अपितु वह चेतना-चिन्मात्र सत्ता है जो देहधारी होने से पूर्व ब्रह्म की छाया मात्र होती है।
'कारणम्' शब्द इस सूत्र का केन्द्रीय बिंदु है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जीव की सत्ता का मूल कारण कोई यांत्रिक, रासायनिक, या जैविक प्रक्रिया नहीं, अपितु ब्रह्म की चेतना का स्वयं में प्रकट होना है।
उपनिषदों में कहा गया है—"स एकदा आत्मानं एव अवेद"—उसने स्वयं को जाना और सृष्टि प्रारंभ हुई। यही दर्शन इस सूत्र में संक्षिप्त रूप में व्यक्त है।
योग और सांख्य के दृष्टिकोण से, जीव प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होता है; लेकिन यहाँ 'प्रकटन' को प्राथमिक माना गया है। अर्थात् 'पुरुष' (परमात्मा) जब चेतन रूप में 'जागृत' होता है, तभी 'जीव' (व्यक्त चेतना) का आरम्भ होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सूत्र यह संकेत करता है कि व्यक्ति की चेतना, आत्म-बोध का परिणाम है। जब आत्मा या 'I-consciousness' उभरती है, तभी जीव की यात्रा प्रारम्भ होती है। यह मनोविज्ञान में self-awareness के क्षण से मिलती-जुलती अवधारणा है।
निष्कर्ष: इस सूत्र से यह ज्ञात होता है कि जीव कोई पृथक सत्ता नहीं, अपितु ब्रह्म की प्रकट चेतना का ही रूप है। जैसे सूर्य की किरण सूर्य से अलग नहीं होती, वैसे ही जीव भी ब्रह्म के प्रकट होने से ही अस्तित्व में आता है। यही अद्वैत की मूलधारा है।
पाठ का पहला और दूसरा सूत्र, साथ ही उनकी गहराई से व्याख्या अब शामिल कर दी गई है। यदि आप तीसरे सूत्र से आगे की व्याख्या, व्यावहारिक दृष्टिकोण, या श्लोकों का विस्तार चाहते हों, तो बताइए—मैं उसी क्रम में अगला भाग प्रस्तुत कर सकता हूँ।अब हम 'प्रज्ञा-सूक्तम्' के तीसरे से पाँचवे सूत्र तक व्याख्या और भावार्थ सहित प्रस्तुत करते हैं:
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सूत्र ३: जीव देहे तिष्ठति ।।३।।
अनुवाद: जीव देह में रहता है।
भावार्थ:
'जीव' अर्थात् चेतन सत्ता, आत्मा – वह परम स्रोत से उत्पन्न होकर देह में स्थित होती है। देह इस चेतना का अस्थायी आवास है। यह निवास स्थायी नहीं है, किंतु जब तक देह है, जीव उसी में बंधा रहता है।
दार्शनिक दृष्टि:
यह सूत्र वेदांत के "देह-अतिरिक्त आत्मा" के सिद्धांत से जुड़ा है—आत्मा अमर है, देह क्षणिक।
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सूत्र ४: देहात काल ज्ञानं भवति ।।४।।
अनुवाद: देह से समय का ज्ञान होता है।
भावार्थ:
जब तक जीव देह में स्थित है, वह समय को अनुभव करता है—जन्म, वृद्धि, वृद्धावस्था और मृत्यु। देह ही वह साधन है जिससे 'भूत', 'वर्तमान' और 'भविष्य' का बोध होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि:
देह की इंद्रियाँ और चित्त समय का बोध कराते हैं। स्मृति (past), अनुभव (present) और कल्पना (future)—ये सब देह और मस्तिष्क के माध्यम से ही संभव हैं।
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सूत्र ५: देहमेव देशोच्चयते ।।५।।
अनुवाद: देह ही देश कहलाता है।
भावार्थ:
जैसे काल का बोध देह से होता है, वैसे ही 'देश'—अर्थात् स्थान या क्षेत्र—भी देह से ही परिभाषित होता है। देह जहाँ है, वहीं हमारा 'देश' है।
दार्शनिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण:
स्थानीयता (locality) की अनुभूति देह के स्थायित्व से जुड़ी है। आत्मा सर्वव्यापक हो सकती है, लेकिन जब वह शरीर में है, तो स्थानबद्ध होती है।
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यदि आप चाहें, तो अगले सूत्र (६–९) में ज्ञान-अज्ञान, भ्रम-विभ्रम और पतन की प्रक्रिया की व्याख्या करूँ?अब हम सूत्र ६ से ९ तक के ‘प्रज्ञा-सूक्तम्’ की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। यह खंड अज्ञान, भ्रम, विभ्रम और पतन की गहराई से पड़ताल करता है – एक प्रकार की चेतना-क्रम-शृंखला:
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सूत्र ६: देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावं अज्ञानस्य कारणं भवति ।।६।।
अनुवाद: देश और काल के सम्यक् (सही व सम्पूर्ण) ज्ञान का अभाव अज्ञान का कारण बनता है।
भावार्थ:
जब हम अपने स्थान (देश) और समय (काल) को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते—अपने अस्तित्व की स्थिति और उपयुक्तता को नहीं पहचानते—तब अज्ञान जन्म लेता है।
व्यवहारिक दृष्टिकोण:
मानव तब भ्रमित होता है जब उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह कहाँ है (देश) और कब है (काल)। आत्म-चेतना और परिस्थिति-बोध का अभाव ही अज्ञान है।
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सूत्र ७: अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति ।।७।।
अनुवाद: अज्ञान से भ्रम उत्पन्न होता है।
भावार्थ:
जब सत्य का स्पष्ट ज्ञान नहीं होता, तब भ्रम उत्पन्न होता है। वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति के बावजूद यदि हम उसे सही न पहचानें, तो वह भ्रम कहलाता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण:
यह illusion है—इंद्रियों द्वारा यथार्थ का गलत बोध।
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सूत्र ८: भ्रमात् विभ्रमं जायते ।।८।।
अनुवाद: भ्रम से विभ्रम (मृगमरीचिका/भ्रमातीत अनुभूति) उत्पन्न होता है।
भावार्थ:
जब भ्रम गहरा होता है, तब हम उन चीज़ों को भी देखने या अनुभव करने लगते हैं जो हैं ही नहीं। यह विभ्रम है—hallucination।
उदाहरण:
अंधेरे में रस्सी को साँप समझना भ्रम है, लेकिन बिना किसी वस्तु के साँप का दिखना विभ्रम है।
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सूत्र ९: विभ्रमात् पतनं भवति ।।९।।
अनुवाद: विभ्रम से पतन होता है।
भावार्थ:
जब किसी का ज्ञान और चेतना विभ्रम में डूब जाती है, तो उसका नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पतन निश्चित है।
दार्शनिक निष्कर्ष:
विभ्रम आत्म-विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव पतनशील बन जाता है।
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यदि आप चाहें, तो अगले तीन सूत्र (१०–१२), जिनमें प्रवृत्ति, सुख-दुख की सृष्टि, और भौतिक अनुभव की परिणति का उल्लेख है—उनकी व्याख्या भी प्रस्तुत कर सकता हूँ। आदेश दें।अब प्रस्तुत हैं सूत्र १० से १२ तक की व्याख्या, जो पतन से प्रवृत्ति, भौतिक सुख और उससे उत्पन्न दुःख के दर्शन को स्पष्ट करती है—
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सूत्र १०: पतनमेव प्रवृत्तिरुच्चयते ।।१०।।
अनुवाद: पतन ही प्रवृत्ति कहलाता है।
भावार्थ:
जब आत्मा भ्रम और विभ्रम से पतित होती है, तब वह प्रवृत्ति की ओर मुड़ती है—अर्थात् बाह्य जगत की ओर सक्रिय होती है।
दर्शनीय निष्कर्ष:
यहाँ प्रवृत्ति का अर्थ है संसार में लिप्त होने की प्रवृत्ति—काम, क्रोध, लोभ आदि में उलझ जाना। यह पतनशील चेतना की दिशा है।
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सूत्र ११: प्रवृत्तिः भौतिकी सुखं ददाति ।।११।।
अनुवाद: प्रवृत्ति भौतिक सुख प्रदान करती है।
भावार्थ:
जब जीव प्रवृत्ति के मार्ग पर बढ़ता है, तो उसे इन्द्रियजन्य सुख की अनुभूति होती है—भोजन, भोग, प्रतिष्ठा, पदार्थ आदि।
मनोवैज्ञानिक व्याख्या:
यह सुख क्षणिक है, लेकिन तीव्र—जो मस्तिष्क में डोपामिन की तरह उत्तेजना उत्पन्न करता है, जिससे जीव बार-बार उसी प्रवृत्ति की ओर खिंचता है।
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सूत्र १२: भौतिकी सुखं दु:खोत्पादयति ।।१२।।
अनुवाद: भौतिक सुख दुःख उत्पन्न करता है।
भावार्थ:
वही भौतिक सुख, जो आरम्भ में आकर्षक लगता है, अंततः दुःख का कारण बनता है—लोभ, वियोग, निरसता, अपराधबोध आदि के रूप में।
दर्शन दृष्टि:
यह भगवद्गीता तथा बुद्ध के उपदेशों से मेल खाता है—जहाँ इन्द्रियसुख को दुःख का मूल बताया गया है।
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यदि आप चाहें, तो अगले तीन सूत्र (१३–१५), जिनमें निवृत्ति, संन्यास और ओंकार का पथ वर्णित है, की व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है। कहिए।अब प्रस्तुत हैं सूत्र १३ से १५ तक की व्याख्या**, जहाँ निवृत्ति, संन्यास और ऊँकार के आध्यात्मिक मार्ग को स्पष्ट किया गया है—
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सूत्र १३: सुखदु:खाभावात् निवृत्तिः प्रकटति ।।१३।।
अनुवाद: सुख-दुःख के अभाव से निवृत्ति प्रकट होती है।
भावार्थ:
जब कोई व्यक्ति सुख और दुःख—दोनों से परे हो जाता है, तब उसमें निवृत्ति की प्रवृत्ति जागती है।
दर्शन दृष्टि:
यह वैराग्य की अवस्था है—जहाँ मन इन्द्रियजन्य अनुभूतियों से हटकर परम शांति की ओर उन्मुख होता है। सुख-दुःख द्वंद्व हैं, और निवृत्ति उस द्वंद्व से ऊपर उठना है।
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सूत्र १४: निवृत्तिः मार्गमेव संन्यासरुच्चयते ।।१४।।
अनुवाद: निवृत्ति का मार्ग ही संन्यास कहलाता है।
भावार्थ:
जब मन संसार की प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है, तब वह संन्यास की दिशा में चलता है। यह बाह्य त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक वैराग्य है।
योगदृष्टि:
संन्यास का सही अर्थ कर्मों में आसक्ति का त्याग है, न कि कर्म का परित्याग। गीता में इसे कर्मसंन्यास कहा गया है।
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सूत्र १५: संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति ।।१५।।
अनुवाद: संन्यास ही ओंकार (परमात्मा) का पथ है।
भावार्थ:
जिसने संन्यास को स्वीकार किया—अर्थात् सुख-दुःख से परे होकर सत्य की ओर बढ़ा—वह ॐ (ओंकार, ब्रह्म, परमात्मा) के मार्ग पर अग्रसर होता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण:
ॐ ब्रह्म का प्रतीक है—और संन्यास उस ब्रह्म तक पहुँचने की साधना है। यह शुद्धतम चेतना का पथ है।
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अब यदि आप कहें, तो सूत्र १६ से १८—संन्यासी, आत्मज्ञानी, ब्रह्मविद् और समाधि—के व्याख्या-पथ पर आगे बढ़ते हैं?अब प्रस्तुत हैं सूत्र १६ से १८ की व्याख्या**, जो संन्यास से आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, और अंततः समाधि तक के परम लक्ष्य को उजागर करती है:
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सूत्र १६: संन्यासी आत्मज्ञः भवति ।।१६।।
अनुवाद: संन्यासी आत्मज्ञानी होता है।
भावार्थ:
जो व्यक्ति निवृत्ति के मार्ग पर चलकर संन्यास को धारण करता है, वह अंततः आत्मा के स्वरूप को जान लेता है।
आध्यात्मिक संकेत:
यहाँ संन्यास केवल वस्त्र परिवर्तन नहीं, बल्कि अंतर्मन की पूर्ण निर्मलता है। यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति है—"कोऽहं?" (मैं कौन हूँ?) का उत्तर।
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सूत्र १७: आत्मज्ञः ब्रह्मविद् भवति ।।१७।।
अनुवाद: आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी होता है।
भावार्थ:
जो आत्मा को जानता है, वही ब्रह्म (सर्वव्यापक परम तत्त्व) को भी जान लेता है—क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म का प्रतिबिंब है।
दर्शन दृष्टि:
यह सूत्र उपनिषदों के महावाक्य "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ) तथा "त्वं तत्" (तू वही है) का गूढ़ सन्निवेश है। आत्मा और ब्रह्म में द्वैत नहीं—अद्वैत है।
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सूत्र १८: जीव-ब्रह्म-योगः समाधिरुच्यते ।।१८।।
अनुवाद: जीव और ब्रह्म का योग ही समाधि कहलाता है।
भावार्थ:
जब जीव अपने आत्मस्वरूप को ब्रह्म में लीन कर देता है—अर्थात् व्यक्तिगत चेतना ब्रह्मचेतना से एक हो जाती है—तो यह अवस्था समाधि है।
योगशास्त्र की भाषा में:
समाधि वह स्थिति है जहाँ चित्त वृत्तियों का निरोध होकर केवल एकत्व की अनुभूति बचती है—न ज्ञाता रहता है, न ज्ञेय, केवल ज्ञान (ब्रह्मस्वरूप) ही शेष रहता है।
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निष्कर्ष:
'प्रज्ञा-सूक्तम्' की यह अंतिम त्रयी जीवन की पूर्णता का दार्शनिक खाका है—जहाँ अज्ञान से शुरू होकर ब्रह्म में लय तक की संपूर्ण यात्रा है।
यदि आप चाहें तो अब मैं इस 'प्रज्ञा-सूक्तम्' का एक सारांश, दर्शनीय संरचना, अथवा बाइलिंगुअल प्रकाशन प्रारूप (Sanskrit-Hindi-English) के रूप में एकपृष्ठीय प्रस्तुति तैयार कर सकता हूँ। आदेश दें।यह रहा 'प्रज्ञा-सूक्तम्' का एक सुसंगठित बाइलिंगुअल त्रिभाषिक सारांश (Sanskrit–Hindi–English), जो काव्यात्मक-सांद्र दर्शन को आधुनिक और विद्वत शैली में प्रस्तुत करता है—*
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प्रज्ञा-सूक्तम्
(Prof. Awadhesh Kumar 'Shailaj', Pachamba – Begusarai)
“Satyamārga – The Journey from Illusion to Brahman”
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१. ऊँ स्वयमेव प्रकटति।
परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं।
The Supreme reveals Himself spontaneously.
२. प्रकटनमेव जीवस्य कारणं भवति।
परमात्मा का प्रकट होना ही जीव का कारण है।
The manifestation of the Supreme is the cause of the soul (jīva).
३. जीव देहे तिष्ठति।
जीव देह में निवास करता है।
The soul dwells within the body.
४. देहात् कालज्ञानं भवति।
देह से समय का बोध होता है।
Time is perceived through the body.
५. देहमेव देशोच्चयते।
देह ही देश (space) कहलाता है।
The body is itself a designation of space.
६. देशकालस्य सम्यक् ज्ञानाभावः अज्ञानस्य कारणं भवति।
देश-काल का सम्यक ज्ञान न होना अज्ञान का कारण है।
Lack of proper knowledge of space and time leads to ignorance.
७. अज्ञानात् भ्रमोत्पादनं भवति।
अज्ञान से भ्रम उत्पन्न होता है।
Ignorance gives rise to illusion (bhrama).
८. भ्रमात् विभ्रमः जायते।
भ्रम से विभ्रम (hallucination) उत्पन्न होता है।
Illusion leads to delusion (vibhrama).
९. विभ्रमात् पतनं भवति।
विभ्रम से पतन होता है।
Delusion leads to downfall.
१०. पतनमेव प्रवृत्तिः उच्यते।
पतन ही प्रवृत्ति कहलाती है।
Downfall becomes worldly entanglement (pravṛtti).
११. प्रवृत्तिः भौतिकी सुखं ददाति।
प्रवृत्ति भौतिक सुख देती है।
Worldly pursuit yields material pleasure.
१२. भौतिकी सुखं दुःखोत्पादयति।
भौतिक सुख दुःख का कारण बनता है।
Material pleasure gives rise to suffering.
१३. सुखदुःखाभावात् निवृत्तिः प्रकटति।
सुख-दुःख के अभाव से निवृत्ति प्रकट होती है।
From the transcendence of pleasure and pain arises detachment.
१४. निवृत्तिः मार्गः संन्यास उच्यते।
निवृत्ति का मार्ग संन्यास कहलाता है।
The path of detachment is renunciation.
१५. संन्यासमेव ऊँकारस्य पथं अस्ति।
संन्यास ही परमात्मा का मार्ग है।
Renunciation is the path to the Supreme (Om).
१६. संन्यासी आत्मज्ञः भवति।
संन्यासी आत्मज्ञानी होता है।
A renunciate becomes self-realized.
१७. आत्मज्ञः ब्रह्मविद् भवति।
आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी होता है।
The knower of the self is the knower of Brahman.
१८. जीव-ब्रह्म-योगः समाधिः उच्यते।
जीव और ब्रह्म का योग समाधि कहलाता है।
Union of the individual and the Absolute is Samādhi.
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विशेष टिप्पणी (Editor's Note):
इस रचना को थियोसोफिकल सोसाइटी की अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्षा डॉ. राधा बर्नीयर द्वारा 'सत्य की ओर' शीर्षक से विशेष रूप से सराहा गया एवं ‘अध्यात्म ज्योति’ में प्रकाशित किया गया।
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