📘 अध्याय 1
मूल संस्कृत पाठ — “वनदेवी उद्भिदं दिव्यं प्रणव ॐ स्तोत्रम्”
1.1 अध्याय-प्रस्तावना
इस स्तोत्र का मूल, शुद्ध, संस्कृत पाठ प्रस्तुत है।
किसी भी शास्त्रीय पुस्तक का प्रथम और आधारभूत अध्याय मूल पाठ का होता है, क्योंकि यही वह केंद्र है जहाँ से—
छन्द प्रवाहित होता है
ध्वनि का अनुनाद जन्म लेता है
अर्थ की पहली किरण प्रकट होती है
दिव्य ऊर्जा पाठक के हृदय में कंपन करती है।
इस कारण मूल पाठ ईश्वर-स्तुति का “प्रथम स्पर्श” है।
यह स्तोत्र प्रकृति, वनदेवी, उद्भिद (वनस्पति), शक्ति, पुरुष और प्रणव (ॐ) को एक ही दैवी तत्त्व में समाहित करता है।
अतः मूल संस्कृत पाठ के उच्चारण, लय और स्वर-स्वरूप का पाठक पर अत्यंत गहरा प्रभाव होता है।
1.2 मूल संस्कृत पाठ
“वनदेवी उद्भिदं दिव्यं प्रणव–ॐ–स्तोत्रम्”
(डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज द्वारा रचित)
वास्तुतन्त्रज्योतिष्यादि–
औषधीश्रीविवर्धिनि।
सर्वदोषविमुक्ते त्वं
गुरुसख्यसुखप्रदे॥१।।
ब्रह्मविष्णुमहेशादि–
केशवरूप–शुभङ्करि।
सच्चिदानन्दरूपायै
शक्त्यै सर्वहिताय नमः॥२।।
राजेन्द्र–शैलजा–पुत्रो
शैलजः स्तोत्रमद्भुतम्।
कृतवान् ते प्रसीदेहि
प्रभो गुरुवनप्रिये॥३।।
वनदेव्यै उद्भिदायै
पुण्यायै ते नमो नमः।
प्रकृत्यै पुरुषायै च
प्रणवाय परमेश्वर॥४।।
1.3 पाठ-रूप की विशेषताएँ
इस स्तोत्र के मूल संस्कृत पाठ की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हैं—
(1) अनुष्टुप् छन्द में रचना
छन्द ८–८–८–८ की मात्रा पर आधारित है।
अनुष्टुप् को स्तोत्र-छन्दों का राजा कहा गया है।
(2) ध्वनि और लय का प्राकृतिक स्वरूप
विशेष रूप से—
“वास्तुतन्त्रज्योतिष्यादि”
“सच्चिदानन्दरूपायै”
जैसे पदों में प्रकृति के प्रवाह जैसी ध्वनि है।
(3) संस्कृत-शुद्धता
प्रत्येक रूप, विभक्ति, समास शास्त्रीय नियमों के अनुरूप है।
“शैलजा” (माता) और “शैलज” (स्वयं कवि) दो भेद स्पष्ट हैं।
(4) ब्रह्म–प्रकृति–पुरुष–प्रणव का अद्वैत
अंतिम श्लोक में यह पूर्णतः स्पष्ट होता है कि रचना केवल स्तुति नहीं—
यह एक उपनिषद-दृष्टि है।
1.5 पाठक के लिए निर्देश
इस अध्याय का प्रयोग इस प्रकार करें—
पहले स्तोत्र को शुद्ध स्वर में एक बार पढ़ें
ध्वनि पर ध्यान दें, अर्थ की चिंता न करें
दूसरे चरण में लय के साथ पढ़ें
तीसरे चरण में भावों को अनुभव करें
इस प्रकार यह ध्यान, उच्चारण, ध्वनि और अनुभूति का प्रवेश-द्वार बन जाएगा।
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