चाँद ! तुम्हारी यादों में,
हर रात बीत यों जाती है ।
आँखें तेरा रुप सलोना,
देख नहीं थक पाती हैं ।।
करते हो आँख मिचौनी तुम,
बदरी संग चाँदनी रातों में ।
अपनी शीतल किरणों से,
तुम घायल कर जाती हो ।।
हे आशुतोष सिरमौर !
दूज के चाँद ! कहाँ छिप जाते हो ?
मेरे अन्तस् की पीड़ा को,
क्यों नहीं समझ तुम पाते हो ?
अपने चकोर को चाँद सुनो,
क्यों इतना अधिक सताते हो ?
हैं बरस रहीं आँखें कब से,
मेरे दिल की तुम धड़कन हो ।।
रातें अंधियारी हैं गहरी,
घनघोर अंधेरा छाया है ।
जुगनू ने साहस करके,
तम को दूर भगाया है ।।
चाँद ! चाँदनी रातों की,
कर रहा चकोर प्रतीक्षा है ।
तुम मिलो या नहीं मुझसे,
यह तो बस तेरी इच्छा है ।।
प्रिय ! तेरे हित में ही,
हित मेरा दिखलाता है ।
चाँद ! तेरा चकोर यह,
तुझमें ही मिल जाता है ।।
प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
पचम्बा, बेगूसराय ।
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