जग जीवन की क्या दशा-दिशा,
किसको पता ? सच समाचार।
हैं कौन, कहां, कैसे रहते ?
सुधि लेने वाले हैं कहां यार ?
अच्छों की पूछ है अधिक नहीं,
कुल शील हीन को पुरस्कार।
जो सत्य सनातन विमुख कुटिल,
करते सज्जन का तिरस्कार।।
सभ्यता संस्कृति प्राचीन मिटी,
मिट रहे गांव, है शहर पास।
पहचान मिटे सब आपस के,
सब चिह्न मिटे, मिट गए आश।। 
गुरु जन हैं मूक, अल्हड़ समाज,
स्तब्ध पुरातन, दिग्भ्रमित आज। 
जड़ चेतन सामञ्जस्य रहित,  
हैं प्रकृति पुरुष भी व्यथित आज।। 
ज्ञानी-विज्ञानी, कवि, कलाकार ,
हैं कृषक व्यथित, झोपड़ी उदास।
महलों में चकाचौंध व्याप्त,
तम पथ प्रदीप, दीपक प्रकाश।।
घर-घर की यही कहानी है,
प्रकृति बनी है कथाकार।
झूठे असभ्य अपराधी का,
चलता है कुत्सित व्यापार।।
मिलते थे गले सानन्द सदा, 
हैं गला घोंटने को तैयार। 
है नीति अनीति की फैली,
केवल इतना है समाचार।।
आतुर जनता नेता बनने, 
कर रही प्रदर्शन अहंकार। 
सब अस्त व्यस्त मदमस्त यहाँ, 
निज को समझावे किस प्रकार ? 
परहित साधन हित समय नहीं, 
न निजहित बोध, नियति विचार।। 
दल, बल, आन्दोलन की नीति,
छल, छद्म, अनीति, प्रतिकार।
कर तिरस्कार आत्मा को मन, 
आधुनिक बना, नव समाचार।। 
मन अच्छा या बुरा करे जो, 
अधर्म विपक्ष रत प्रतिकार।
नीति अनीति राजनीति निमग्न, 
मीडिया बनाती समाचार।।
पहचान मिट रहा संस्कृति मूल, 
स्व में सिमटा घर परिवार। 
परिभाषा सबकी अपनी-अपनी, 
अज्ञानी बाँटते ज्ञान हार।। 
कागजी नाव, असमय कम्बल, 
वोटों को नोट मिला करता ।
होठों की, आँख मिचौनी से,
सत्ता का खेल चला करता।। 
अभिव्यक्ति का आधार बना,
सब लोग बनाते जनाधार।
मीडिया प्रिंट इलेक्ट्रॉनिक,
हर हाथ मोबाईल समाचार।। 
है प्रकृति पुरुष का खेल परम
पुरूषार्थ नियति नीति विधान। 
पंच तत्व, गुण तीन, पूर्ण प्रभु, 
अंकों में अंकित विविध ज्ञान।। 
है शून्य लोक परलोक समझ, 
मानव का सीमित सोच जान। 
हैं मूक वनस्पति, प्रकृति, जीव, 
जल, थल, नभ गोचर विधान।। 
सत्ता प्रतिपक्ष का हाल देख, 
दुनियाँ दु:ख से है- परेशान ।।  
जन जीव प्रकृति निज धर्म त्याग, 
हैं चाह रहे स्वर्णिम विहान्। 
हैं सुजन मूक, व्यथित, पीड़ित,
है जन जीवन का यह समाचार।
जागो, उठो, चलो - सत्पथ पर, 
आत्मा, वेदादि, गुरु, ग्रन्थ विचार।। 
भारत भारती से सहज प्रकट, 
शैलज शान्ति समृद्धि विचार। 
भारती विस्तृत भूमण्डल से, 
कर रही अखण्डता की पुकार।। 
डॉ० प्रो० अवधेश कुमार "शैलज",
पचम्बा, बेगूसराय, बिहार।
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