गुरुवार, 10 जुलाई 2025

सिद्धांत संग्रह

"किसी सजीव प्राणी का अपने वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों के प्रति यथार्थ बोध "प्राणी धर्म" होता है; उक्त प्राणी को होने वाले बोध हेतु उपलब्ध संसाधनों को "अर्थ" कहते हैं; बोध से उत्पन्न अपेक्षाओं को "काम" कहते हैं एवं बोध से वातावरण के प्रति उत्पन्न आवश्यक विरक्ति भाव को "मोक्ष" कहते हैं तथा इन समस्त प्रक्रियाओं के सन्तुलन हेतु क्रियामाण शक्ति को "जीवनी शक्ति" और इनकी निरन्तरता को सामान्यतः "जीवन" कहते हैं।"

"मानव अतिरिक्त समस्त सजीव प्राणियों को आवश्यक, निश्चित, सम्यक् एवं सन्तुलित आहार (भोज्य एवं पेय पदार्थ), निद्रा (नींद एवं आराम करने की स्थिति), भय (भय या प्रेमादि अन्य संवेग) तथा मैथुन (कामात्मक भाव प्रवाह एवं प्रजनन सम्बन्धी कार्य और व्यवहार) का उपयोग करते हैं, जो प्रायः मानव में बहुत कम या नहीं पायी जाती है।"


"किसी प्राणी की रुग्णता न केवल उसके वातावरण में उपस्थित वनस्पति, खनिज और / या जीव सम्बन्धी किसी स्थूल या सूक्ष्म उद्दीपन से प्रभावित होता है, वरन् परिस्थिति जन्य किसी तात्कालिक या पूर्व प्रभाव आधारित मनोवैज्ञानिक और / या अभ्यान्तरिक असन्तुलन और / या खगोलीय और / या आनुवंशिक प्रभाव के परिणाम पर निर्भर करता है।"


"मानव कृत समस्त चिन्तन, नियम, आदर्श, आदेश या उपदेश चाहे वह "धर्मार्थकाममोक्षश्च" क्षेत्र की हों और / या "आहारनिद्राभयमैथुश्च" से सम्बन्धित रही हों, इन सबों से बढ़कर और महत्वपूर्ण "प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक नियम" तथा सजीव प्राणियों का "स्वाभाविक और / या स्वत: संचालित प्राकृतिक नियम" है, जिसका सम्यक् पालन नहीं करने से ही प्राणी दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से प्रभावित होता है और दूसरे शब्दों में शारीरिक, मानसिक, मनो-शारीरिक, परा-मनोवैज्ञानिक और / या अतीन्द्रिय प्रभावों से सम्बन्धित सहजता (सुख) या असहजता (दु:ख) का अनुभव कर अपने वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया (तत्काल व्यवहार और समायोजनात्मक व्यवहार) करता है।"


"होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति में बताया गया है कि "समं समे समयति" अर्थात् जिस वस्तु के प्रयोग या उपयोग से कोई एक या अनेक रोग लक्षण उत्पन्न होता है, उसी वस्तु के सूक्ष्म, सूक्ष्मतर या सूक्ष्मतम अंश का प्रयोग या उपयोग करने से उक्त रोग समाप्त होता है। होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति के जनक महात्मा डॉ० हैनीमैन के अनुसार खनिज, जीव और वनस्पति से रोग लक्षण उत्पन्न होता है और उसी से रोग का नाश होता है, लेकिन वास्तव में किसी सजीव प्राणी की "जीवनी शक्ति" के स्वाभाविक क्रिया कलापों में उसके वातावरण में उपस्थित कोई भी उद्दीपन यथा खनिज, जीव, वनस्पति और / या पर्यावरण से सम्बन्धित कोई जैव रासायनिक प्रभाव या परिवर्तन पैदा होता है एवं उस प्राणी के शारीरिक, मानसिक और / या मनोदैहिक स्थिति को प्रभावित करता है, तो वह प्राणी स्वयं को और/या उसके पर्यवेक्षक और/या कोई विशिष्ट वैज्ञानिक संसाधन की दृष्टि में रुग्ण माने जाते हैं और होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति में उन्हीं उद्दीपनों यथा खनिज, जीव, वनस्पति और / या पर्यावरण से सम्बन्धित जैव रासायनिक तत्वों से प्राणी को पुनः प्रभावित किया जाता है, जिससे शरीस्थ स्थूल विष सूक्ष्म विष के प्रभाव से विखण्डित होने लगता है और जीवनी शक्ति उसे मल, मूत्र, दस्त, बलगम, आँसू, आँखों के कीचड़, नाक के श्राव, वमन, फोड़े-फुन्सी, घाव या अन्य चर्म विकार, पसीना आदि के माध्यम से शरीर से बाहर कर देती है, जिससे प्राणी में आवश्यक जैव रासायनिक तत्वों या नमक या उत्तकों का स्वत: सन्तुलन हो जाता है, जिसे बायोकेमिक चिकित्सक बिना किसी अन्य चिकित्सा पद्धति के सहयोग से सन्तुलित कर लेते हैं और जीवनी शक्ति की प्रबलता में वृद्धि होने लगती है, स्नायु और तंत्रिका तंत्र स्वस्थ हो जाता है, कोशिकाओं में सोडियम और पोटैशियम आयोन का सन्तुलन हो जाता है, मस्तिष्क द्वारा संवेदी आवेगों की ग्रहणशीलता और तत्सम्बन्धी शारीरिक, मानसिक या मनोदैहिक सन्तुलन हेतु शरीर के विशिष्ट अंगों को आवश्यक निर्देश दिए जाते है, जिससे प्राणी का मूल प्रवृत्ति जन्य या वातावरण प्रेरित या मनोदैहिक सन्तुलन सम्बन्धित किसी भी प्रकार का आवश्यक, संवेगात्मक एवं समायोजनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है और प्राणी निर्दोष आरोग्य के पथ पर अग्रसर होता है या प्राप्त करता है।"

---"यदि किसी प्राणी के रोग लक्षण उत्पन्न करने वाले कारकों का उसके अपने वातावरण में किसी पूर्व काल और / या वर्तमान समय में अनुपस्थिति के बावजूद भी उन रोग लक्षणों की उपस्थिति का बोध उक्त प्राणी को, प्रेक्षक या चिकित्सक को होता हो और / या वैज्ञानिक संसाधनों द्वारा प्रमाणित होता है तो यह अवस्था इस सिद्धांत को प्रमाणित करता है कि "किसी प्राणी की रुग्णता न केवल उसके वातावरण में उपस्थित वनस्पति, खनिज और / या जीव सम्बन्धी किसी स्थूल या सूक्ष्म उद्दीपन से प्रभावित होता है, वरन् परिस्थितिजन्य किसी तात्कालिक या पूर्व प्रभाव आधारित किसी मनोवैज्ञानिक और / या अभ्यान्तरिक असन्तुलन और / या खगोलीय और / या आनुवंशिक प्रभाव के परिणाम पर निर्भर करता है।" और ऐसी परिस्थिति में भी उन्हीं स्थितियों और / या रोग लक्षण समष्टि को उत्पन्न करने वाली होमियोपैथिक या बायोकेमिक औषधियों का उपयोग या प्रयोग उक्त रुग्ण प्राणी के निर्दोष आरोग्य के हित में किया जायेगा। "न

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