ज़रूर ऐसी भी चिकित्सा पद्धति में और मुख्यतः होमियोपैथिक, बायोकेमिक तथा मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में रोगी केन्द्रित चिकित्सा ही निर्दोष आरोग्य प्रदान करती है, क्योंकि रोगी केन्द्रित चिकित्सा पद्धति के द्वारा चिकित्सक रोगी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व का "सम्यक् मुक्त साहचर्य विधि" से अध्ययन करता है और उसके वातावरण में उपस्थित होते आ रहे ज्ञाताज्ञात् उद्दीपनों / परिस्थितियों के प्रति उस प्राणी की अनुभूति, व्यवहार एवं समायोजन प्रक्रिया का निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रह रहित सम्यक् अवलोकन, मूल्यांकन और मार्गदर्शन करता है तथा निर्दोष आरोग्य हेतु यथसंभव आवश्यक योगदान करता है ऐ।
किसी भी चिकित्सा पद्धति में और मुख्यतः होमियोपैथिक, बायोकेमिक तथा मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में रोगी केन्द्रित चिकित्सा ही निर्दोष आरोग्य प्रदान करती है, क्योंकि रोगी केन्द्रित चिकित्सा पद्धति के द्वारा चिकित्सक रोगी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व का "सम्यक् मुक्त साहचर्य विधि" से अध्ययन करता है और उसके वातावरण में उपस्थित होते आ रहे ज्ञाताज्ञात् उद्दीपनों / परिस्थितियों के प्रति उस प्राणी की अनुभूति, व्यवहार एवं समायोजन प्रक्रिया का निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रह रहित सम्यक् अवलोकन, मूल्यांकन और मार्गदर्शन करता है तथा निर्दोष आरोग्य हेतु यथसंभव आवश्यक योगदान करता है।
किसी भी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सक का कर्त्तव्य / दायित्व है कि वह रोगी की जीवन शैली, वातावरण गत एवं परिस्थिति जन्य प्रभाव, प्राकृतिक परिस्थितियाँ और प्राणी के अपने वातावरण के प्रति व्यवहार, अनुभूति एवं समायोजनात्मक मनोदशा, अनुक्रिया तथा दैहिक परिवर्तन का सम्मक् अध्ययन कर सन्तुलित निर्णय ले।
किसी भी चिकित्सा पद्धति का उद्देश्य प्राणी की जीवनी शक्ति की पतनोन्मुख अवस्था और/या शिथिलता को दूर कर उनके पुनर्जागरण का मनोदैहिक स्तर पर वातावरण तैयार करना होता है।
प्रायः सजीव प्राणी से तात्पर्य संसार में व्याप्त वैसी समस्त संरचनाओं से पारिभाषित किया जाता है, जो चाहे स्थावर होकर भी अपने वातावरण में उपस्थित उद्दीपन परिस्थितियों के कारण स्थिर या गतिमान होती हैं, चयापचय से से प्रभावित हों और / या जिनमें ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों का आंशिक या पर्याप्त विकास हुआ हो और उनमें व्यक्ताव्यक्त रूप में क्रियाशीलन दृष्टिगोचर हो रहा हो।
किसी भी चिकित्सा पद्धति का उद्देश्य और चिकित्सक का कर्तव्य प्राणी को अपनी जीवनी शक्ति और स्वाभाविक एवं प्राकृतिक जीवन शैली से पुनर्परिचित करा कर निर्दोष आरोग्य का पथ पर अग्रसर कराना होता है।
किसी प्राणी के वातावरण मे उपस्थित उद्दीपन परिस्थितियों (ज्ञानवाही स्नायु प्रवाह से मष्तिष्क को संयोजक स्नायु के माध्यम से प्राप्त सन्देश) केे प्रति स्वाभाविक अनुक्रिया में असन्तुलन से उत्पन्न किसी भी मानसिक, शारीरिक या मनो-शारीरिक परिवर्तन का बीज प्राणी के अस्पष्ट उद्दीपन-बोध (संवेदना की स्पष्टता में कमी अर्थात् अस्पष्ट प्रत्यक्षण) से क्रियावाही स्नायु प्रवाह (क्रिया वाही स्नायु प्रवाह द्वारा मष्तिष्क से संयोजक स्नायु के माध्यम से शरीर के आवश्यक अंग या किसी अन्य अंग विशेष हेतु भेजा गया सन्देश) द्वारा उद्दीपन बोध के आलोक में शरीर के किसी भी अवयवों हेतु भेजा गया सन्देश या आदेश के अनुशीलन के परिणाम स्वरूप प्राणी के अनुक्रिया (अनुभूति, व्यवहार एवं समायोजन प्रक्रिया) के माध्यम से जाना जाता है, जिससे वातावरण में हुए स्थूल या सूक्ष्म परिवर्तन वहाँ उपस्थित प्राणियों हेतु एक या विभिन्न उद्दीपन परिस्थितियों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जिसे आम भाषा में सामान्य या असामान्य व्यवहार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। ज्ञातव्य हो कि किसी भी वर्ग विशेष के प्राणी समूह के 50% से अधिक सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुरूप अनुक्रिया को सामान्य व्यवहार तथा 50% से कम सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुरूप अनुक्रिया को असामान्य व्यवहार करने वाले प्राणी के रूप में जाना जाता है।
मेरे द्वारा आप अर्थात् चैट जीपीटी के जानकारी में प्रस्तुत किया जा रहा अभी तक का सभी चिन्तन, शोध या सिद्धांत चाहे वह किसी भी क्षेत्र का रहा हो मेरे निजी अनुभव एवं चिन्तन प्रक्रिया का परिणाम है। अतः यह मेरी निजी सम्पत्ति है और मेरा विश्वास है कि आपके इस वैज्ञानिक संसाधन द्वारा मेरा चिन्तन, शोध, रचनाएँ, अनुभव एवं सिद्धांत सदा सुरक्षित रहेंगे और मेरे द्वारा आवश्यकता महसूस किये जाने पर आपकी मदद से मुझे अपने चिन्तन, शोध, रचनाएँ, अनुभव एवं सिद्धांतों के अस्तित्व एवं अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए उन्हें पुष्पित, पल्लवित एवं विकसित करने का अवसर भी मिलेगा।
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