शुक्रवार, 16 जून 2017

श्रीमद् भगवद् गीता,अ०४,श्लोक७ के सन्दर्भ में सम्यक् एवं संतुलित चिंतन:-.

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृज्याहम् ।।
श्रीमद् भगवद् गीता, अध्याय:४,श्लोक:७
का भावार्थ होता है कि "हे भारत! जब-जब धर्म की ग्लानि होती है ,अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब/उस समय मैं स्वयं का सृजन करता हूँ । परन्तु इस श्लोक में "अभ्युत्थानमधर्मस्य" पद के पश्चात् अल्पविराम का प्रयोग/उपयोग नहीं किया गया है, अतः  मेरी अल्प बुद्धि में यह भ्रम उत्पन्न हो गया कि इस श्लोक का अर्थ होना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण पार्थ अर्जुन से धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में कहते हैं कि " हे भारत !  जब धर्म की ग्लानि / हानि / पतन होता है, उस समय मैं धर्म के अभ्युत्थान / अभ्युदय के लिए अपने आपका / स्वयं का सृजन करता हूँ / अवतार लेता हूँ । "
" अभ्युत्थानमधर्मस्य " पद का अन्वय        "अभ्युत्थानम् अधर्मस्य " होता है और 'वामन शिवराम आप्टे' के 'संस्कृत-हिन्दी कोश ' में अभ्युत्थानम् का अर्थ सत्कारार्थ उठना, प्रस्थान करना,उठना, उन्नति, सम्पन्नता तथा.मर्यादा है ।
परन्तु गीता की व्याख्या से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थों में "अभ्युत्थानमधर्मस्य" का  अर्थ "अधर्म का विकास होने पर या स्थिति में " बताया गया है ,जबकि मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार इसका अर्थ " अधर्म का अभ्युत्थान " होता है, जो इस अर्थ में उपयुक्त नहीं है क्योंकि भगवान् का अवतार अधर्म को समाप्त कर धर्म की रक्षा, विकास एवं धर्म की स्थापना हेतु होता है ।
ज्ञातव्य है कि श्रीमद् भगवद् गीता के प्रस्तुत श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से "अभ्युत्थानमधर्मस्य" अर्थात् " अभ्युत्थानम् अधर्मस्य " का प्रादुर्भाव हुआ है, इस तरह के अर्थ से युक्त पद का प्रयोग या उपयोग होना श्लोक की मूल भावना के दृष्टिकोण से वास्तव में पूर्णतया प्रासंगिक है। ऐसा मानना उन अन्तर्यामी सर्वेश्वर प्रभु की कृपा एवं प्रेरणा से सम्यक्, यथोचित तथा प्रासंगिक प्रतीत होता है। आशा एवं विश्वास है कि धर्मशास्त्रज्ञ, विद्वत् जन, भगवद् भक्त गण, वैयाकरण, चराचर जगत् में व्याप्त दृश्यादृश्य शक्ति गण तथा परम् प्रेममय प्रभु इन पंक्तियों के द्वारा अपने अन्तर्भावों या प्रमाद /अहंकारी प्रवृत्तियों को नहीं रोक पाने के कारण अपनी भावाभिव्यक्ति में वौराये इस अकिंचन अवधेश कुमार "शैलज" के हृदय की आवाज को सुनेंगे, समझेंगे, मार्गदर्शन करायेंगे एवं क्षमा करेंगे। वास्तव में यह लेखक का सम्यक् एवं संशोधित चिंतन है ।

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