शनिवार, 24 अप्रैल 2021

राष्ट्र कवि ! फिर जागो।

राष्ट्र कवि ! फिर जागो ।
("राष्ट्र कवि ! फिर जागो ।" का अद्यतन संशोधित संस्करण)

राष्ट्र कवि ! फिर जागो ।
जागो, कविवर जागो।
जन-जन में राष्ट्रीय चेतना,
कविवर पुनः जगाओ।।

भारत भारती विकल हो रही,
खुद की रक्षा में विफल हो रही,
कविवर ! बोलो क्यों देर हो रही ?
हिन्दी साहित्य अधीर हो रही,
जागो दिनकर ! जागो कविवर!
राष्ट्रीय चेतना को पुनः जगाओ।
राष्ट्र कवि ! फिर जागो।
रूठो मत, कविवर ! आँखें खोलो।

राष्ट्र कवि! फिर जागो।
राष्ट्र कवि! फिर जागो।
जागो, कवि वर जागो।
जागो, कवि वर जागो।

राष्ट्र कवि ! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
अश्रुपूरित आँखों से कैसे
आज तुझे हर्षाऊँ ?

भारतेंदु ने सच ही कहा, 
जो आज समझ में आई ।
भाषा संस्कृति है रुग्ण त्रस्त,
विपदा दुनिया में छाई ।।

भारतेन्दु को जब भारत की
आवाज समझ में आई ।
भारत हित में भारतेन्दु ने,
भारत से गुहार लगाई।।

"आवहुँ सब मिलि रोवहुँ भारत भाई ।
हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखि न जाई।। "
"आवहुुँ सब मिलि रोवहुँ भारत भाई ।
हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखि न जाई।। "

युग द्रष्टा भारतेंदु नहीं थे
केवल कविता प्रेमी ।
हिन्दी-हिन्दुस्थान भारत के
थे अन्तरतम से सेवी ।।

सत्ता है मदमस्त, स्वार्थ में
लीन विपक्षी गण हैं।
दोषी निर्दोषी दोनों मानो
एक भाव जैसे हैं।

राजनीति व्याध साहित्यिक
छल बल से भरे हुए हैं ।
स्वार्थी, अपराधी, आराजक
तत्वों से हम घिरे हुए हैं ।।

अवसरवादी और शरणागत 
माथे पर चढ़े हुए हैं ।
मानवता है त्रसित हो रही,
आतंकित समस्त धरती है ।।

धर्म-कर्म हो रहे तिरोहित,
दुष्ट भाव फैला है ।
देश द्रोहियों का भारत में
महाजाल फैला है ।।

विश्व गुरु भारत की कुटिया,
लूट रहे जग वाले ।
पोथी-पतरा सभी ले गए,
जो बचा जला वे डाले ।।

तप, कर्म, संकल्प, साधना,
ईश बल बचा हुआ है ।
गीता का उपदेश कृष्ण का,
अब भी गूँज रहा है ।।

अर्धनारीश्वर रुप हमारा,
इसे तोड़ते जो हैं ।
प्रकृति-पुरुष की दिव्य शक्ति
को नहीं जानते वे है ?

एक सनातन धर्म हमारा,
सब जीवों की सेवा है ।
दया धर्म का मूल हमारा,
क्षणभर मेरा तेरा है ।।

हम अगुण सगुण को भजते,
सबको अपना ही समझते हैं ।
वे दया धर्म से पतित, हमें
कायर काफिर तक कहते हैं ।।

हम शान्ति, न्याय, आदर्श, अहिंसा,
सत् पथ पर चलते हैं ।
वे ज्योति बुझा कर हमें कुमार्ग
पथ पर चलने को कहते हैं ।।

तोड़ रहे सांस्कृतिक एकता,
आपस में हमें लड़ाकर ।
पूर्वाग्रह ग्रसित प्रतिशोध की
ज्वाला को भड़का कर ।।

जाति-धर्म की राजनीति
हरदम करते रहते हैं ।
ऊँच-नीच का पाठ पढ़ा कर
ये हमको ठगते हैं ।।

भटक रहे जो खुद भ्रमित हो,
औरों को राह दिखाते हैं ।
नद निर्झर की धारा को वे
शिखरों की ओर बहाते हैं ।।

आर्ष ज्ञान से भटका कर
पाश्चात्य जगत ले जाते हैं ।
आधुनिक विज्ञान ज्ञान से,
वे हमको भरमाते हैं ।।

" सोने की चिड़ियाँ " का
अद्भुत रुप नहीं देखा है ।
वरदा भारत भारती माँ से
वेकार उलझ बैठा है ।।

रण चण्डी को बुला रहा है,
रोज निमन्त्रण देकर ।
भगवा धारी प्रकट हुई हैं,
आज तिरंगा लेकर ।।

राष्ट्रकवि ! इनके वन्दन का,
समय पुनः आया है ।
जागें बन मुचुकुन्द कविवर,
राक्षसी प्रवृत्ति छाया हैं ।।

भस्म करें निज ज्ञान नेत्र से,
अन्तर के असुर दलों को ।
अमृत का उपहार सुरों को,
दें फिर मोहिनी बन के ।।

काल कूट तू ही पी सकते,
औरों में शौर्य कहाँ है ?
रहते शांत, असीम धैर्य की
शक्ति यहाँ कहाँ है ?

कविवर ! उठो,जगो हे दिनकर !
तम को दूर भगाओ ।
श्रम जीवी, बुद्धि जीवी को,
सत् पथ राह दिखाओ ।।

बाट जोहती खड़ी भारती
कब से हिन्द जन मन में ।
देर हो रही रणचंडी के,
पावन अभिनन्दन में ।।

" हिन्द उन्नायक " खोज रही हैं,
कब से भारत माता ।
रचनात्मकता का वरण करो,
अवसर न हरदम आता ।।

अपने और पराये अर्जुन,
इन्हें अभी पहचानो ।
अन्तस्थल के विराट को,
दिव्य-दृष्टि से जानो ।।

माता रही पुकार राष्ट्रकवि !
जागो और जगाओ ।
भूषण, गुप्त, सुभद्रा, प्रसाद को
फिर से आज जगाओ ।।

विखरे अपने अंगों को
आज पुनः अपनाओ ।
सत्तर वर्षों की निद्रा से,
वीरों को पुनः जगाओ ।।

भारत की सभ्यता-संस्कृतिक,
संकट में पड़ी हुई है ।
रक्त बीज, जय चन्द, शकुनि से
धरती भरी हुई है ।।

अर्जुन को ही नहीं युधिष्ठिर को
भी रण में लड़ना होगा ।
पाने को अधिकार विवेक से
कर्त्तव्य पूर्ण करना होगा ।।

रण में जो आड़े आयेंगें,
उनको हम सबक सिखायेंगे ।
हम विदुर और चाणक्य सूत्र से
सारे जग को हम जीतेगे ।।

"शैलज" मिथिला की सीमा पर
" दिनकर " की सिमरिया नगरी है ।
हिन्दी साहित्य भाषा शैली की
अवशेष अशेष यह गगरी है ।।

इस पुण्य भूमि को नमस्कार
जिसने तुम-सा सुत जन्म दिया ।
भारत माता की सेवा में निष्ठा से
जीवन भर अपना कर्म किया ।।

देव- दनुज हेतु जहाँ अमृत प्रकटे,
प्राकृत संस्कृत वेद वचन प्रभु से निकले ।
रुप मोहिनी, हरि, राम, विष्णु आये,
सुरसरि हित अवतरित हुए प्रभु रुक पाये ।।

कविवर जागो ! हे राष्ट्र कवि !
दिनकर ! तू आँखें खोलो ।
गोपद 'रेणु' लो, "मैला आँचल" ।
शुचि गंगा जल से धोलो।।

प्रगतिशील रचनात्मक पथ पर,
चलने का व्रत ले लो ।
जीव जगत मानव के हित में,
दृढता से संकट को झेलो।।

आधुनिक प्राचीन मतों में
अन्तर है, पुनः विचारो।
किसी मोहवश लेकिन,
सच को न कभी दुत्कारो।।

जन्म लिया जिस नारी से,
माँ कहलाती है जग में।
मातृभूमि को माँ कहने में, 
क्या दुविधा अन्तस् में।

ममतामयी माँ भारत माता,
निज माँ सा आँचल में खेलो।
पूर्वाग्रह सब त्याग सुपथ संग,
चलने का व्रत कवि ले लो।।

हे राष्ट्रकवि ! दिनकर ! कवि वर !
जन गण मन बोल रहा है ।
भारत माता का दिल संतति संग,
दिनकर रट बोल रहा है।।

हे राष्ट्र कवि! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ?
अश्रुपूरित नेत्रों से कैसे,
कवि ! मैं आज तुझे हर्षाऊँ ?

राष्ट्र धर्म हो नहीं कलंकित
ऐसा राष्ट्र बनाऊँ ।
सत्य सनातन धर्म कर्म का,
जग को पाठ पढ़ाऊँ ।।

भारत माता की सेवा में
जीवन शेष बिताऊँ ।
जनता की सच्ची सेवा कर
जन सेवक कहलाऊँ ।।

मांग रहा बलिदान राष्ट्र जब
कभी नहीं घबराऊँ ।
ज्ञान- विज्ञान, कला , अध्यात्म
का जग को पाठ पढ़ाऊँ ।।

अहंकार में भटके जन को
कैसे राह दिखाऊँ ?
पीड़ित मन से कैसे कविवर,
आज तुझे हर्षाऊँ ?

राष्ट्रराष्ट्र कवि ! हृदय की पीड़ा,
कैसे तुम्हें बताऊँ ?
राष्ट्र कवि ! दिनकर !
कैसे मैं श्रद्धा सुमन चढाऊँ ?

प्रो० अवधेश कुमार " शैलज "‛
पचम्बा, बेगूसराय ।
मॊवाईल न०ः ८२१०९३८३८९

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

माँ दुर्गा की प्रार्थना


अपनी बोली अर्थात् अंगिका क्षेत्र बेगूसराय की भाषा में माँ दुर्गा की वन्दना / प्रार्थना करने का मैंने आज प्रथम बार प्रयास किया है और मिथिला क्षेत्र होने के कारण इस प्रार्थना में मिथिला की भाषा शैली का भी समावेश हो गया है। अतः विद्वत् जन कृपया अन्यथा भाव न लेकर उत्साहवर्धन करेंगे तथा सम्यक् मार्ग दर्शन करेंगे। शुभमस्तु।।

माँ दुर्गा की प्रार्थना (संशोधित)

हे दुर्गा दुर्गति नाशिनी मैया !
कण-कण में तू वासिनी मैया!
किये हमरा भटकावै छे ?
किये न दै छे सुन्दर मति माँ,
किये न ज्ञान बढ़ावै छे ?
हे दुर्गा दुर्मति नाशिनी माँ !
हमरा किये रुलावै छे ?
करम-धरम हम बूझै नै छौं ,
हमरा किये नै सिखावै छे ?
माई-बाप के कैसन बेटा ?
लोग से बात सुनाबै छे ?
होवे छे अपमान तोहर जब,
जीवन ई व्यर्थ सुनाबै छौं ।
हे दुर्गा दुर्भाग्य नाशिनी !
माँ! ममता किये न दिखावै छे ?
कर्म सुकर्म के समझ नै हमरा,
पूजा पाठ न आवै छै ।
जनम देले, भेजले धरती पर।
की करुँ ? सदा पछतावै छौं ।
कुछ न चलैय हमरा ई जग में,
सत् पथ में संकट पावै छौं ।
कोई न साथी संगी जग में,
सबके स्वारथ में पावै छौं ।
गलत करम के राही छै सब,
हमरो हरदम भटकावै छै।
जौं नै चलैय छौं ओकर राह पर,
हमरा रोज सतावै छै।
हे दुर्गा ! हे शिवे! त्र्यम्बिके!
जग जननी! तू कहलवै छे।
सृष्टि पालनहार जगत के,
तू ही में जगत समावै छै।
कर्म , आयुु, सौभाग्य,  ज्ञानदा।
जोग जुगुति नैय जानय छौं ।
अन्तर्यामिनी! सिद्धि दात्री!
दिल के बात बतावै छौं ।
अवगुण अहंकार दुर्गुण के
पार न हम सब पावै छौं ।
कृपा करू हे माँ अघ नाशिनी!
शैलज पुत्र पुकारै छौं ।
क्षमा करू हे अम्मा अम्बे !
निज मातृभाषा में बाजै छौं ।

सब सन्तान तोरे छै मैया,
किये न उनका समझावै छे ?
जौं ई बात गलत छै मैया।
किये वेद पुराण पढ़ावै छे ।

त्रिविध ताप नाशिनी मैया,

सत्पथ तू दर्शावै छे।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सेवक, सबके,

मैया तू लाज बचावै छे ।

हे दुर्गा दुर्गति नाशिनी!
शरणागत दर्द सुनाबै छौं ।
चरण शरण दियौ हे मईया,
सब जग में तोहें पावै छौं ।
तू दुर्भाग्य नसावै छी माँ!
तू सौभाग्य जगावै छी माँ!
हे दुर्गा दुर्गति नाशिनी माँ!
......
हे दुर्गा दुर्गति नाशिनी माँ!
क्षमा करू सब भूल चूक माँ!
वरदायिनी! शब्द न पावै छौं ।
"ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै।"
कोशिश कर जाप सुनाबै छौं।
करके स्मरण सिद्ध कुञ्जिका
निज अन्तर्भाव बतावै छौं।
हे दुर्गा दुर्गति नाशिनी माँ!
जे बुझावै छै से गावै छौं।
हे दुर्गा............।

अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।


बुधवार, 7 अप्रैल 2021

शैलज घायल हो गया.....

शैलज घायल हो गया, चुभ गया दिल में तीर।
मुरझाया आनन कमल, बदल गया तकदीर।।

मौसम बदला, हवा चली, बुझ गया एक चिराग।
नीतिवान् गाते सदा, परिवर्त्तन राग विराग।।

बंद झोपड़ी में पड़ा, कब से राज कुमार।
आज उजागर हो गया, उसका सब व्यापार।।

जनता बैठी द्वार पर, करती आर्त्त पुकार।
नेता सेवक मदमस्त हैं, लगा राज दरबार।।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज,
(कवि जी),
पचम्बा, बेगूसराय।