शनिवार, 14 सितंबर 2019

बेचारी हिन्दी (संशोधित)

वेचारी हिन्दी (संशोधित) :-

श्रीमान् जनता जनार्दन ! हे भारत भाग्य विधाता !
वंदनीय हे आतिथेय ! हिन्दी के भाग्य विधाता ।।
करूँ अर्चना कैसे ? तेरे लायक कुछ पास नहीं है।
प्रेम भाव सेवा में अर्पित, चरणामृत हेतु खड़ी है ।।
नयनों में हैं नीर खुशी की, हिय में पीड़ भरी है।
सेवा में आवेदन लेकर अबला एक खड़ी है।।
हे भारत के संविधान! क्या मैं अपनी व्यथा सुनाऊँ ?
कैसा है भारत स्वतंत्र ? क्यों मूक बनी रह जाऊँ ?
चीर हरण हो रहा हमारा, आज हमारे घर में।
कब आओगे कृष्ण कन्हैया, द्रौपदी के आँगन में ?
दुस्सासन अंग्रेजी कौरव दल से घिरी हुई हूँ।
धृतराष्ट्र को नहीं सूझता, दल-दल में पड़ी हुई हूँ।।
शकुनि की है चाल, दुर्योधन को समझ नहीं है।
धर्मराज हैं मूक, भीष्म प्रतिज्ञा बहुत बड़ी है।।
जनता पाण्डुपुत्र बैठे है, मौन सत्ता के आगे,
कर्त्ता धर्त्ता तुम हो केशव, तुमसे संकट भागे।।
कैसे भूलें मूल्य नमक का ? सुधी जन सोच रहे हैं ।
कृष्ण तुम्हारा रूप बना कर छलिये घूम रहे हैं ।।
लेते हो अवतार, तुम्हें क्या बतलाऊँ,कहाँ पड़े हो ?
धर्म सनातन की रक्षा का प्रण क्या भूल गये हो ?
कृष्ण! द्वारिकाधीश ! श्री हरि! स्रष्टा, पालक, संहर्ता ।
रक्षक संस्कृति संस्कृत के, तुम प्राकृत के स्रष्टा ।।
राजभाषा मैं, मातृभाषा हूँ, भारत के जन-जन की।
हर भाषा का सम्मान है करना, प्रकृति मेरे जीवन की।।
मेरे समृद्धि और विकास में सब सहयोग मिला है।
हृदय कपाट सभी के हित में सब के लिए खुला है।।
सब हैं एक समान हृदय से भारत के या जग के ।
सम्यक् सर्वांगीण विकास हो जग के हर मानव के।।
भारत के जन से स्वेच्छा से जो सम्मान मिला है।
उस राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा अबतक नहीं मिली है ।।
कम्प्यूटर ,आफिस ,घर में भी अंग्रेजी का पहरा है ।
दस्तावेजों, न्यायालय में ऊर्दू-फारसी का लफरा है ।।
निज अस्तित्व-अस्मिता हेतु मैं संघर्ष नित्य करती हूँ ।।
सत्ता का डर नहीं, साहित्यकारों से केवल डरती हूँ।
राजनीति के दलदल, स्वार्थी चाटुकारों का है डेरा ।।
बसती हूँ जन-मन गण में, लेकिन नारद का है फेरा ।
करती हूँ आतिथ्य सभी का, करती हूँ अभिनन्दन।
लाज आपके हाथों में है, करती हूँ मैं पद वन्दन।।
गिलवा और शिकायत कुछ भी मुझको नहीं किसी से।
फिर भी कथा व्यथा सुनाना पड़ता है मुझको अन्तस् से।।
अभी-अभी आ रही यहाँ थी,आमणत्रंण मुझे मिला था ।।
हिन्दी मैं अपने सम्मान दिवस में मन मेरा उलझा था ।
आमन्त्रित थी सारी भाषाएँ , मैं आतिथ्य में रत थी।
पर कुत्सित भावों से भर कर अंग्रेजी वहाँ खड़ी थी।।
अकस्मात् ही लगी बोलने बहुत क्रोध में भरकर।
पूज रही थी पैर, परन्तु वह कहने लगी अकड़कर।।
निकल ईडियट, कैसे तूने सन्मुख आने की ठानी,
गेट आऊट, कम्बख्त ! मैं हूँ सब भाषा की रानी।।
"हिन्दी-दिवस" तुम नहीं जानती, अंग्रेजी जीवन है ।
चले गये अंग्रेज सभी, परन्तु आत्मा अभी यहीं है ।।
नहीं जानती तुम मेरा वर्चस्व जगत भर में है।
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का भी रूप हमारा ही है।।
प्राकृत सभी भाषा की माता, हिन्दी मूल संस्कृत है।
पर उसकी ममता हिन्दी, तुम पर ही क्यों रहती है ?
अंग्रेजी क्रोध मान्यवर इतना पर भी न घटा है।
सब भाषा से मिलकर उसने नया प्रपंच रचा है।।
हिन्द देश की अखण्डता दीख रही खतरे में।
भाषा संस्कृति एकता अखण्डता यही हिन्द का बल है।
सत्य न्याय शान्ति सद्भावना भावना भारत का सम्बल है।।
पूज्य मान्यवर मेरी इसमें गलती कहीं नहीं है।
सारे जग की भाषा में आत्मा मेरी बसती है।।
अबला की आवाज जनार्दन कबतक आप सुनेंगे ?
अन्तर्यामी चीर-हरण को कबतक आप सहेंगें ?

प्रो० अवधेश कुमार ' शैलज ', (कवि जी),
पचम्बा, बेगूसराय ।
( क्रमशः )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें