बुधवार, 22 अप्रैल 2020

ठक्किन बुढ़िया

लघु कथा:-  ठक्किन बुढ़िया

रात सपने में एक ठक्किन बुढ़िया आई। एकाएक दरवाजा खटखटाया। मैं डर गया। आतंक, अभाव, महामारी, षडयंत्र, असुक्षा और कर्त्तव्य बोध के साथ सर्वत्र विश्व व्यापी सन्नाटा पसरा हुआ था।यत्र-तत्र सर्वत्र लाशों का ढ़ेर था। लोग सिमटे दुबके मनो-शारीरिक संक्रमण के भय से चाह कर भी एक दूसरे से अलग-थलग पड़े हुए थे। मानव अपने कर्मों का फल भोग रहा था। सर्वत्र त्राहिमाम् मचा हुआ था। एक ही सर्वशक्तिमान सत्ता के भिन्न-भिन्न रूप अल्ला, ईश्वर, गौड का सहारा इस समय सभी महसूस कर रहे थे। राजा-रंक, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, अपने-पराये, मूर्ख-विद्वान्, सज्जन-दुर्जन, अच्छे-बुरे सब बराबर हो गए थे, परन्तु इन विकट परिस्थितियों में धूर्तों, चालाकों, ठगों, पतितों और थेथ्थरों ने अपना धन्धा नहीं छोड़ा था। भगवत कृपा से संसार के लगभग सभी राजाओं को सद्बुद्धि आ गई थी और हो भी क्यों नहीं। कहा भी गया है कि "भय बिनु होत न प्रीति। " जादूगरनी बुढ़िया के पीछे अनेक छोटे-छोटे दुधमुँहे बच्चे थे, जिसे उसने अपने जमात के उस्तादों के साथ रख कर शातिर और हाथ की सफाई में पारंगत बना चुकी थी। उसने स्तब्ध रात्रि में दरवाजा खोलने को कहा, लेकिन इस विषम परिस्थिति में सुरक्षा और सतर्कता जरूरी थी, घर बालों ने भी मना किया था, राजा का आदेश और आग्रह तो था ही और मेरा विवेक भी संयोग से कहीं चरने के लिए भी नहीं गया था। बुढ़िया बोली : बेटा ! मैं बड़ी गरीब महिला हूँ तथा ये अबोध बच्चे-बच्चियाँ एवं बूढ़े-नौजवान लोग भी हमारे ही परिवार के ही हैं ।" इसके पहले कि मैं कुछ बोलने का साहस करता बुढ़िया ने आगे कहा "बेटा ! इस संकट की घड़ी में मुझे अपने घर में थोड़ी जगह दे दे। तुम्हारे ऊपर ईश्वर की कृपा होगी।"" मैं पहले से तो भयभीत था ही और इस विषम परिस्थिति में और भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। छोटी-सी मेरी यह कुटिया । क्या करें ?अगर इन्हें घर में घुसने दें तो हम सबों को घर से निकलना ही होगा। करें तो क्या करें ?  "अतिथि देवो भव " का सवाल भी तो है, लेकिन उसी समय याद आया कि बड़े बुजुर्ग कहते थे कि "जिसके कुल और शील का पता नहीं हो, उसे घर में स्थान नहीं देना चाहिए। " इसलिए मैंने उसे बाहर में रहने को कहा, लेकिन बुढ़िया चालक थी, उसने कहा "बेटा! तू तो बड़ा होशियार और सज्जन लगता है। लोगों को परमार्थ करनी चाहिए, केवल अपने लिए ही नहीं सोचना चाहिए।" कहा भी गया है कि "जिस राज्य में राजा परमार्थ नहीं करता है, वहाँ उपद्रव होता है।" " मैं भी पहले यह नहीं मानती थी। धर्म-कर्म कुछ भी नहीं समझती थी, लेकिन अब देखो मैं आधुनिक समय का आदर्श बन गई हूँ। जो कुछ मैंने बचपन में सीखा है, उसे सदा याद रखती हूँ। सबके साथ अच्छा व्यवहार करती हूँ । परन्तु इस संकट की घड़ी में जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ?" बुढ़िया लगतार बोलती ही जा रही थी। उसने कहा "आज-कल नये जमाने में कोई किसी को पूछता तक कहाँ है ? किसी का भी उपकार कर दो, बदले में अपकार ही मिलता है", लेकिन बेटा ! जब से मैंने सुना है कि "भलाई कर, दरिया में डाल" इसलिये भलाई करो । अल्ला तुम्हें सलामत रखे। तेरी झोली खुशियों से भर दे। बेटा, घर में थोड़ी सी जगह दे दे।"मुझे याद आया कि इसी तरह संकट के समय चालक एवं धूर्त लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए सीधे-साधे लोगों को बहुरुपिया बनकर ठगते फिरते हैं। अतः मैंने बुढ़िया से कहा कि "अपने घर क्यों नहीं जाती है, जो रात में लोगों को परेशान कर रही है ? हमलोग तो खुद परेशान हैं। " इसके बाद भी बुढ़िया ने गिरगिराते एवं मिरमिराते हुए कहा " बेटा ! मैं तो अब बूढ़ी हो गई  हूँ, मुझे बहुत कुछ याद भी नहीं रहता है, तुरंत भूल जाती हूँ। फिर घर भी तो मुझे नहीं हैं। माँग-चाँग कर, रोजी-रोजगार कर, उलटफेर कर जिसके पास जमा किया था उस पर भी आफत आ गई है। कहते हैं राम राज आ गया है, लेकिन मैं तो परेशान हूँ। बेटा मैं तो बड़े खानदान से आई हूँ। एक समय था कि देश विदेश में मेरी और मेरे परिवार की चलती चलती थी, लेकिन अब तो इस राजा के राज में सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है। गुड़-गोबर हो गया है। बेटा ! ऐसा राजा आ गया गया है कि किसी का कुछ चलता नहीं है। मानती हूँ, वह सब कुछ हम लोगों के लिए ही करता है लेकिन जो करता है, मनमानी ही करता है। जब देखो तब मन की ही बात करता है। मेरा तो सब कुछ लुट गया है,  पड़ोसी भी साथ नहीं दे रहे हैं, जब तक हमलोगों का राज था, लोग जी हजूरी करते रहते थे। आज तो सबके सब स्वार्थ सिद्धि तक साथ चल रहे हैं । क्या पता कौन कब साथ छोड़ दे ? बेटा बहुत गरीब एवं बेसहारा हूँ। कितनी अच्छी साड़ी है, लेकिन किनारे में देखो पेन लगा हुआ। मेरा झोला भी फटा हुआ है। जो कुछ कहीं मिलता है उसे रखने तक का उपाय नहीं है। बच्चों के पेट में अनाज और तन पर कपड़े तक नहीं है। एक पैसा तक नसीब नहीं है। कहीं कोई उपाय नहीं है। बेटा! प्लीज रहम कर बेटा, इस बुढ़िया के परिवार पर।"मैंने बीच में ही उसकी बात को काटते हुए कहा कि इतने बड़े हुजूम बाला तुम्हारा परिवार कैसे हो सकता है? तुम्हारा यह परिवार तो भूत-प्रेतों एवं उचक्कों का समूह-सा लगता है। खुद देखो ये क्या कर रहे हैं ? ये तो हमारे घर को पहले से ही तोड़ने में लगे हुए हैं, जहाँ तुम सब अपने रहने का जगह खोज रहे हो। अतः मैं तुम सबों को अपने घर में स्थान नहीं दे सकता हूँ।" परन्तु बुढ़िया ने उनका बचाव करते हुए कहा कि ये तो बच्चे हैं। बच्चों से तो गलती होती ही है। बच्चे गोद में पेशाब कर देते हैं तो हम उसे थोड़े कहीं फेंक देते हैं।" जिसके जबाव में मैंने फिर एक प्रश्न दागा "और ये नौजवान और बूढ़े इन्हें क्या हो गया है ?"  बुढ़िया भी मानने वाली नहीं थी उसने कहा कि "शरीर में घाव हो जाने पर अंगों को काटकर अलग तो नहीं किया जाता है ?"और मेरा जबाव था कि "जान बचाने के लिए ऑपरेशन तो आवश्यक ही है।" बुढ़िया ने कहा "बेटा ! कुछ भी कहो हम लोग अपने-अपने लक्ष्य की सिद्धि तक आपस में जरूरत के अनुसार साथ-साथ रहेंगे।"मैं बड़ा धैर्य से उसकी कहानी सुन रहा था। अब तो मुझे और भी डर लगने लगा था। मुझे लगा कि बुढ़िया वास्तव में बहुत शातिर है। वह मुझे बहला-फुसला रही है। मैंने झल्लाते हुए कहा कि "घर नहीं है तो नैहर क्यों नहीं चली जाती है ? कुछ दिन वहाँ ही रह लो और आगे का उपाय करो। दोस्त-मित्र, सगे-सम्बन्धी भी तो ऐेसे ही समय में काम आते हैं। अपने-परायों का पता भी चल जाएगा। मेरे पास उपाय रहता तो कुछ मदद भी कर देता। " परन्तु बुढ़िया मानने वाली कहाँ थी। वह अपने जिद पर अभी भी अड़ी हुई थी, वास्तव में बाल हठ, त्रिया हठ बहुत ही जबरदस्त होता है। फिर औरतों का क्या ठिकाना। शास्त्रों में कहा गया है कि "त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं, दैवो न जानाति कुतो मनुष्याः।" इसलिए मैंने उससे जान छुड़़ाना ही उचित समझा। अब तक मैं समझ गया था कि यह बुढ़िया इसी तरह माया फैला कर सीधे साधे लोगों को अपने जाल में फँसाने के चक्कर में रहती है। अब मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था।परन्तु अभी भी मेरे मन में चल रहा था, क्या करूँ? क्या न करूँ। और अन्त में मैंने उससे कहा "जहाँ मन हो जा। चल हट यहाँ से। मेरा माथा मत खा।"बुढ़िया बोली बेटा ! कहाँ जाऊँ ? मैं यहीं रहूँगी। सड़क पर भी तो कहीं मजबूरों गरीबों ने, कहीं दलालों एवं शातिरों ने और कहीं दबंगों ने डेरा डाल रखा है। कहीं मनोनुकूल जगह नहीं मिल रही है। अब कहाँ जाऊँ ?  एक बार मुझे अपने यहाँ शरण तो दो। मैं तुझे स्वर्ग का सा राज सुख दूँगी। किसी तरह की कमी होने नहीं दूँगी। "मैंने बुढ़िया से कहा कि"जब तुम इतना सब कुछ जानती है तो अपने लिए व्यवस्था क्यों नहीं कर लेती है ? स्वयं भी दर-दर भटकती है और दुनिया को भी भटकाने में लगी हुई है।"बुढ़िया ने कहा देखो बेटा ! तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहिं नहीं नीर।" इसलिये मैं अपने लिए खुद कुछ नहीं करती हूँ। एक बार की घटना है, जब मुझे राज सुख मिलने वाला था मैंने उस वक्त भी सत्ता सुख तक का सहजता के साथ परित्याग कर दिया और केवल काम करने वाले व्यक्ति को सम्मान दिया। बड़ी-डींगें हाँकने बालों को नहीं। मैं सत्ता के केन्द्रीय करण के बदले विकेन्द्रीकरण का हमेशा से पक्षधर रही हूँ। लेकिन अभी तो मैं एक साथ रहने का यथासंभव प्रयास करूँगी ही।"बुढ़िया बोली "बेटा ! मुझ शरणागत पर थोड़ा रहम करो। कम से कम कुछ उपाय होने तक मुझे यहाँ रहने दो। शरणागत की रक्षा करना इस देश की संस्कृति रही है।"इतना होने के बाद भी मैं परेशान था मुझे घुटन का अनुभव हो रहा था। मुझे लग रहा था कि यदि इसे हम अपने घर में स्थान दे देगें तो, कल के दिनों में मुझे अपनी इस कुटिया से भी हाथ धोना पड़ सकता है। अतः मैंने उसे अपने घर में घुसने नहीं दिया, क्योंकि कभी-कभी लोग शरण मिलने के बाद वे प्रायः माथे पर चढ़कर नाचते दिखाई देते हैं।"फिर भी मैंने सोचा अपने घर में तो जगह नहीं है, बगल में तो रह सकती है। मुझे क्या बिगाड़ लेगी। आखिर आदमी ही तो है और इसलिए उसे बगल में रहने से मना नहीं किया। सोचा "निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।" लेकिन यह क्या उसने कहा कि "मैं बाहर में रहूँगी और तुम लोग भीतर में और इतना कहते-कहते बुढ़िया का असली चेहरा सामने आ गया। अब ममता भरी दीखने वाली बुढ़िया ने पूतना जैसी भयानक राक्षसी का रूप धारण कर अत्यंत क्रूर और विशाल दीखने लगी थी। जबरदस्त तूफान आ चुका था। उसके साथ में आये हुए सभी एकाएक उपद्रव मचाने लगे। चारों ओर मल, मांस, हड्डियों एवं कचड़े की वर्षा होने लगी, जहाँ-तहाँ आग लग गया। उसके फैले हुए केश विकराल साँपों के समान फन फैलाये हुए लगाने लगे और उसका पंजा मुझे और मेरे परिजनों-पुरजनों को दबोचने हेतु हमारी ओर तीव्रता से बढ़ता चला आ रहा था। इस विषम परिस्थिति में मैंने लोगों को पुकारा लेकिन लोग स्वयं परेशान थे, फलस्वरूप चाह कर भी साथ नहीं दे सके और कुछ लोग इस संकट की भेंट भी चढ़ चुके थे। मैंने ईश्वर को याद किया। वही तो एक सहारा हैं। सबके स्रष्टा, पालक एवं समाहर्ता हैं । इस समय अध्यात्म ही एक मात्र सहारा है और यह सोच कर मैंने प्रभु का ध्यान किया,उन्हें याद किया। उसी समय मुझे क्षण-भर के लिए कमलासीन प्रभु का दर्शन हुआ तथा जिनके दर्शन से मैं आनन्द विभोर हो गया एवं उनके प्रति नतमस्तक हो गया। उन्होंने मुझसे कहा कि वत्स! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ। जो मांगना है मांगो। मैंने कहा "प्रभु संसार में घोर संकट छाया हुआ है और इसके साथ ही इस बुढ़िया ने आपने साथी संगियों के साथ हम सबों पर धावा बोल दिया है। अतः प्रभु! इन संकटों से मुझे बचावें। प्रभु ने एवमस्तु कहा और सब कुछ क्षण भर में अनुकूल हो गया, परन्तु उनके अन्तर्ध्यान होते ही आकाशवाणी हुई। वत्स!
जब जब धरा एवं धर्म पर संकट आया है, मैंने  देवदूतों, संतो -सज्जनों, ऋषि-महर्षियों, गुरुऔर विद्वानों के माध्यम से तथा खुद अवतार लेकर भी संसार में कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। मैंने श्रीमद्भभगवद्गीता के माध्यम से "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:।" और "युक्ताहारविहारस्य, युक्त कर्म सुचेष्टषु। युक्त स्वप्नाववोधस्य योगो भवति दु:खहा" आदि दिव्य वचनों से, बुद्ध मार्ग से:- "अत्त दीपो भव।", महावीर के "णमो अरिहंताणं।", वेद और उपनिषद् के " तमसो मा ज्योतिर्गमय। ", " सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित्दु:खभाग्हवेत्।। " जैसे महत्त्वपूर्ण वचनों से समय-समय पर मार्ग प्रशस्त किया है। अतः हे वत्स! तुम सब इनका अनुशीलन करो तथा हर विषम परिस्थिति में उपद्रवों की शान्ति हेतु प्रस्तुत शान्ति मन्त्र का स्मरण करें:-"नक्षत्रं उल्का अभिहतं शमस्तु न:। शं नो अभिचारा:, शमुसन्तु कृत्या:।।शं नो निखाता:, बल्गा:, शमुल्का:।देशोपसर्गा: शमु नो भवन्तु।।" "ऊँ शान्ति:।। शान्ति: ।। शान्ति:।।" इतना होते ही भगवत् कृपा से बुढ़िया नीचे गिर गई और उसके जमात तितर-बितर हो गये। माहौल बदल गया और मेरी नींद टूट गई। भोर का वक्त था। मैं तो घबड़ा गया था । किसी को सुनाने में भी डर लगने लगा, लेकिन बूढ़े बुजुर्गों ने बताया कि यह एक सपना था। डरने की कोई बात नहीं है। भगवान का नाम लिया करो।अहंकार को त्यागो। सबसे मिल कर रहो, लेकिन देश, काल एवं पात्र का ध्यान रखो। "वाराणस्यां दक्षिणे भागे कुक्कुटो नाम ब्राह्मण: । यस्य स्मरण मात्रेण दु:स्वप्नों, सुस्वप्नो भवेत्।" इस मन्त्र का जप किया करो। अपनी ओर से कोई भी गलती नहीं करो। अच्छा बोओगे, अच्छा काटोगे। भगवत् कृपा से हमेशा कल्याण होगा।

डॉ० प्रो० अवधेश कुमार शैलज, पचम्बा, बेगूसराय।

Prof. Awadhesh Kumar पर 11:54 pm

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